________________
स्वरूपानुसंधान पूर्वक परचिंत्वन हो तब तक उसकी वह दशा सम्यक् मानी जाएगी, परन्तु अभ्यासकाल में परचिंत्वन के समय क्वचित् स्वरूपानुसंधान छूट भी जाय वहाँ चैतन्य की अकेली परव्यवसायिता हुई मानी जाएगी, वैसी दशा मिथ्या मानी जाएगी। वैसी हालत में योगानुयोग से यदि आयुबंध हो जाए तो तत्समयी अध्यवसाय के अनुसार चारों गतियों में से किसी भी गति का आयुबंध होता है- यह सहज में समझ में आए ऐसी बात है।
श्रीमद् को स्वात्म प्रतीतिधारा जब क्षायोपशमिक भाव से प्रवर्तित रहती थी, तब एक बार श्री सीमंधर प्रभु के सत्संग प्रसंग को चैतन्य टेलीविजन पद्धति से देखकर उल्लास में आकर ‘भवे भवे तुम्ह चलणाणं' इस सूत्रानुसार उनके शरण भाव में इतने तल्लीन बन गए थे कि स्वात्म प्रतीतिधारा छूट गई और मनुष्यायु बंध गई। क्षायिक धारा तो उनको उसके बाद सिद्ध हुई।
निदान रहित यदि मनुष्यायु बंध जाए तो वह समकिती जीव भोगभूमि में जाय यह सम्भव है, परन्तु निदान युक्त मनुष्यायुबंध को उपर्युक्त सिद्धांत लागू नहीं हो सकता। फिर सम्यक्त्व की प्रवर्तित गतिशील धारा में जहाँ निदान की संभावना नहीं है, वहाँ यदि आयुबंध हो तो वह देवायु रूप में हो ऐसा समझा जाता है। इस प्रकार आगम
और अनुभव प्रमाण से उस महाविदेही का महाविदेह में गमन सिद्ध हुआ। गंभीरता से सोचने पर उक्त आगम प्रमाण बुद्धि गम्य हो सकता है।
a