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ऐसें आचार्य नव-पंचक की पूर्ति हेतु अपनी कमर कस रहे हैं।
जिसको जिस भव में क्षायिक सम्यक्त्व हो उसको उसी भव में अथवा दूसरे या तीसरे भव में और क्वचित् विकल्प से चौथे भव में केवलज्ञान अवश्य ही प्राप्त होता है। उनमें कोई तीर्थंकर नामकर्म युक्त हो और कोई न हो- यह बात सैद्धांतिक है। ___ क्षायिक सम्यक्त्व के प्राकट्य के कारण जिस प्रकार वर्तमान तीर्थंकर वत् भावी तीर्थंकर आराध्य हैं, उसी प्रकार भावी सामान्य केवली भी वर्तमान जिनवत् आराध्य हैं। वर्तमान दशा की उपेक्षा करके अद्यावधि बाह्य साधुत्व नहीं होते हुए भी भावी जिनेश्वर श्री श्रेणिकादि के जीवद्रव्य की वर्तमान जिनेश्वरवत् आराधना जैसे उपादेय है, और उससे उनकी मूर्तिपूजादि गुण रूप है, वैसे ही वर्तमान क्षायिक द्रष्टा, अखण्ड स्वरूपज्ञानी, उत्कृष्ट अप्रमत्त संयमी और भावी सम्पूर्णज्ञानी युगप्रधान श्रीमद् राजचन्द्रजी की आराधना वर्तमान जिनवत् उपादेय है ही। अत: उनकी मूर्ति और अनुभव वाणी भी वंदनीय, पूजनीय यावत् आराधनीय है ही। फिर भी 'माने उसके देव-गुरु और पालन करे उसका धर्म है।' जो जिसके निमित्त से तैरने वाले हो वे उसके निमित्त से ही तैर सकते हैं। सभी को कोई एक ही निमित्त नहीं ही हो सकता वहाँ फिर भिन्न निमित्तता में विवाद क्या ? __ चैतन्य-टेलिविजन पद्धति से देखते हुए तो श्री श्रेणिक के जीवद्रव्य की वर्तमान में नैगमनय से प्रभुता दिखाई देती है, जब कि श्रीमद् राजचन्द्रदेव के जीवद्रव्य की तो वर्तमान में एवंभूतनय से प्रभुता
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