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व्याख्या के साथ टूटती कड़ियों को जोड़ने रूप श्रीमद् ने आत्मसिद्धि शास्त्र में जीव की अपेक्षा से केवलज्ञान की परिभाषा/व्याख्या बतलाई
जिनागम में सयोगी भवस्थ केवलज्ञान, अयोगी भवस्थ केवल दो-दो प्रकार का और सिद्ध केवलज्ञान इत्यादि भेद देखने में आते हैं वे भी जीव सापेक्ष हैं। उसकी पूर्ति भी श्रीमद् प्रकाशित परिभाषा द्वारा ही सम्भव है।
इस रहस्योद्घाटन से यह सिद्ध हुआ कि द्वितीया (बीज) के चन्द्र की भांति आत्मचन्द्र का बीज केवलज्ञान से प्रत्यक्ष दर्शन इस काल में हो सकता है
'वह केवल को बीज ज्ञानी कहे, निज को अनुभव बतलाय दिए।'
- श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत द्वितीया से चतुर्दशी पर्यंत के निरावरण चन्द्र की भांति जितना निरावरणत्व आत्मचन्द्र का हो उतना आत्मा का कर्म-राहु से मोक्ष भी हो और वह इस काल में हो सकता है। फिर भी प्रचलित उपदेश प्रवाह में इस काल में इस क्षेत्र में आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं ही हो सकता है और मोक्ष भी नहीं ही हो सकता है' ऐसा प्रचार जैनों में चल रहा है वह भी इस काल का एक आश्चर्य (अच्छेरा) ही है।
और इस आश्चर्य (अच्छेरे) के अंग रूप ऐसा भी प्ररूपित होता है कि 'इस भरत में अभी किसी को क्षायिक समकित हो ही नहीं