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भी यहाँ मानते हैं........ जगत में किसी भी प्रकार से जिसकी किसी भी जीव के प्रति भेद दृष्टि नहीं है ऐसे श्री........ निष्काम आत्मस्वरूप के नमस्कार प्राप्त हो।' - पत्रांक 398 _ 'चित्त के विषय में जैसी मुक्त दशा जब से इस उपाधियोग का आराधन करते हैं तब से रहती है, वैसी मुक्त दशा अनुपाधि प्रसंग में भी रहती नहीं थी, ऐसी निश्चलदशा (क्षायिक सम्यक्दशा) मार्गशीर्ष शुक्ला 6 (संवत् 1948) से एक धारा से चली आ रही है।' - पत्रांक 400
'अशरीरीभाव इस काल में नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस काल में हम स्वयं नहीं है, ऐसा कहने तुल्य है।' - पत्रांक 411
'अव्याबाध स्थिति के विषय में जैसा था, वैसा का वैसा स्वास्थ्य है।' - पत्रांक 411
'मन, वचन, काया के योग में से, जिन्हें केवली स्वरूप भाव होते अहंभाव मिट गया है। विपरीत काल में एकाकी होने से उदास।' - पत्रांक 466
'जैसी दृष्टि इस आत्मा के प्रति है, वैसी दृष्टि जगत के सर्व आत्माओं के विषय में है। जैसा स्नेह इस आत्मा के प्रति है, वैसा स्नेह सर्व आत्माओं के प्रति रहता है........ जैसा सर्व देहों के प्रति बर्ताव करने का प्रकार रखते हैं, वैसा ही प्रकार इस देह के प्रति रहता है........ केवल आत्मरूपता के कार्य में प्रवर्तन होने से जैसी उदासीनता जगत के सर्व पदार्थों के प्रति रहती है, वैसी (उदासीनता)
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