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सम्पादकीय
श्रीमद् राजचन्द्रजी की महाविदेही दशा (उपास्यपदे उपादेयता )
‘अनन्य आत्मशरणप्रदा सद्गुरुराज विदेह । पराभक्तिवश चरण में, धरूं आत्मबलि एह ।।' (यो.यु. श्री सहजानन्दघनजी)
प्राक्कथन
'तनु रहते जिनकी दशा, वर्त्ते देहातीत । उन ज्ञानी के चरण में, हो वंदन अगणित - अनगिनत ।। ' (सप्तभाषी आत्मसिद्धि - 142 )
युगदृष्टा ज्ञानावतार परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचन्द्रजी की इस कलिकाल के कल्पतरुवत् जो परमज्ञानमय देहातीत महाविदेही दशा रही है उसे हम सब, उनके उपासक भी, क्या जानें ?
हम तो ठहरे अज्ञानी व जड़बुद्धि ! क्रिया जड़ और शुष्कज्ञानी । उस अद्भुत, अपूर्व, अनुभव - दशा को तो वैसे ही स्वानुभवदशायुक्त आत्मानुभवी सत्पुरुष ही जान सकते हैं।
ऐसे स्वानुभूतिपूर्ण दृष्टापुरुष थे श्रीमद्जीवत् ही देहातीत आत्मदशा
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