________________
श्रीमद् राजचंद्र की आत्मोपनिषद्
'विवेकख्याति' को सम्यक् ज्ञान मानती है और उसके ही आधार पर पुनर्जन्म के चक्र को मिटाने भिन्न भिन्न प्रणालियाँ आयोजित करती है।
श्रीमद् राजचंद्र ने दूसरे दोहे में आत्मार्थी मुमुक्षु के लिये मोक्ष का मार्ग स्पष्ट रूप से निरूपित करने की प्रतिज्ञा की है।
मनुष्य स्थूल वस्तु को पकड़कर बैठता है और गहराई में उतरता नहीं है । इतना ही नहीं, परंतु गहराई में रहे हुए सूक्ष्म और सच्चे तत्त्व को स्थूल में ही मान बैठता है। यह दोष सभी पंथों में सामान्य रूप से दिखाई देता है। इसीलिये ही लौकिक और अलौकिक अथवा संवृत्ति-मायिक और परमार्थ ऐसी दो मानसिक भूमिकाएं सर्वत्र प्रतिपादित हुईं हैं। इनमें से लौकिक अथवा अपारमार्थिक भूमिकावाले कुछ लोग ऐसे होते हैं जो, 'क्रियाजड़' बन बैठते हैं और कुछ 'शूष्कज्ञानी हो जाते हैं। वे दोनों अपने आपको मोक्ष का उपाय प्राप्त हो गया हो इस प्रकार बरतते और बोलते हैं। श्रीमद् इन दोनों वर्ग के लोगों को उद्देश कर मोक्षमार्ग का सच्चा स्वरूप दर्शाते हुए क्रियाजड़ और शूष्कज्ञानी का लक्षण निरूपित करते हैं
और साथ ही त्याग-वैराग्य एवं आत्मज्ञान दोनों का परस्पर पोष्यपोषकभाव दर्शाकर आत्मार्थी की परिभाषा स्पष्ट करते हैं। उन्होंने आत्मार्थी की जो परिभाषा की है वह एक प्रकार से ऐसी सरल और दूसरे प्रकार से ऐसी गंभीर है कि वह व्यावहारिक दुन्यवी जीवन और पारमार्थिक सत्य धार्मिक जीवन दोनों में एक समान लागु होती है।
. उसके पश्चात् उन्होंने सद्गुरु के लक्षण कहे हैं। ये लक्षण ऐसी दृष्टि से निरुपित हुए हैं, कि उनमें आत्मविकास की गुणस्थान क्रम के अनुसार भूमिकाएं आ जायँ
और जो भूमिकाएँ योग, बौद्ध एवं वेदान्त दर्शन की परिभाषा में भी दर्शित की जा सके। श्री राजचंद्र ने गुरुपद उपयोग में नहीं लेते हुए सद्रुपद योजित किया है, जो आध्यात्मिक जागृति का सूचक है। श्री अरविंद ने भी सद्गुरु-शरणागति पर विशेष बल दिया है - देखें The Synthesis of Yoga | श्री किशोर लालभाई ने मुमुक्षु की विवेकदृष्टि और परीक्षक बुद्धि पर बल डालते हुए भी यथायोग्य सद्गुरु से होने वाले लाभ की पूरी कद्र की ही है। आख़िर तो मुमुक्षु की जागृति यही मुख्य वस्तु है। उसके बिना सद् गुरु की पहचान मुश्किल है और पहचान हो तो टिकनी भी कठिन है। जैन परंपरा के अनुसार छठवें और तेरहवें गुणस्थानक पर उपदेशकपन संभवित