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श्रीमद् राजचंद्र की आत्मोपनिषद्
सहजरूप से एवं नम्ररूप से फिर भी निश्चित वाणी से किया है, कि वह एक सुसंगत शास्त्र बना रहता है। उसकी शैली संवाद की है। शिष्य की शंका या प्रश्न और गुरुने किया समाधान। इस संवादशैली के कारण से वह ग्रंथ भारी भरकम और जटिल नहीं बनते हुए, विषय गहन होने पर भी सुबोध और रुचिपोषक बन गया है ।
- आचारांग. सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और प्रवचनसार, समयसार जैसे प्राकृत ग्रंथों मे जो विचार भिन्न भिन्न रूप से बिखरा हुआ दीखता है गणधरवाद में जो विचार तर्कशैली से स्थापित हुआ है और आचार्य हरिभद्र अथवा यशोविजयजी जैसे आचार्यों ने अपने अपने अध्यात्म विषयक ग्रंथो में जो विचार अधिक पुष्ट किया है, वह समग्र विचार प्रस्तुत आत्मसिद्धि' में इतने सहज भाव से गुम्फित हो गया है कि उसे पढ़नेवाले को पूर्वाचार्यों के ग्रंथो का परिशीलन करने में एक कुंजी मिल जाती है । शंकराचार्य ने अथवा उसके पूर्व के वात्स्यायन, प्रशस्तपाद व्यास
आदि भाष्यकारों ने आत्मा के अस्तित्व के बारे में जो मुख्य दलीलें दी हैं वे प्रस्तुत 'आत्मसिद्धि' में आती हैं । परंतु चिंतन करते हुए मुझे यह दृष्टिगत होता है कि प्रस्तुत रचना श्री राजचन्द्र ने केवल शास्त्र पढ़कर की नहीं है, परन्तु उन्होंने सच्चे एवं उत्कट मुमुक्षु के रूप में आत्मस्वरूप की स्पष्ट और गहरी प्रतीति हेतु जो मंथन किया, जो साधना की और जो तप आचरित किया उसके परिणाम स्वरूप संप्राप्त अनुभव प्रतीति ही इस में प्रधान रूप से प्रतिपादित हुई है। एक मुद्दे में से दूसरा, दूसरे में से तीसरा इस प्रकार उत्तरोत्तर ऐसी सुसंगत संकलना हुई है कि उसमें कुछ भी निकम्मा नहीं आता, काम का रह नहीं जाता और कहीं भी पथच्युति नहीं होती। इसीलिये श्रीमद् राजचंद्र की आत्मसिद्धि' यह एक सिद्धांत शास्त्र बना रहता है।
भारतीय तत्त्वज्ञों - दार्शनिकों एवं संतों की आत्मा के स्वरूप विषयक दृष्टि मुख्यरूप से तीन विभागों में विभाजित हो जाती है: (१) देहभेद से आत्मभेद और वह वास्तविक ही; (२) तात्त्विक रीति से आत्मतत्त्व एक ही और वह अखंड फिर भी दृष्ट जीवभेद यह केवल अज्ञानमूलक; (३) जीवभेद वास्तविक परंतु वे एक ही परमात्मा के अंश। इस प्रकार दृष्टियाँ तीन प्रकार की होते हए भी सर्व दृष्टि का पारमार्थिक आचार एक ही है। वास्तविक जीवभेद माननेवाला प्रत्येक दर्शन जीव का तात्त्विक स्वरूप तो समान ही मानता है और उस आधार से वे दूसरे छोटे - बड़े सारे प्राणियों के प्रति आत्मौपम्यमूलक आचार आयोजित करते हैं और दूसरों की