________________
श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना इस प्रसंग पर श्रीमद् के स्मारक के रूप में चल रही संस्थाओं के विषय में सूचन करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जितना मुझे मालूम है उसके अनुसार उनके स्मरणरूप में चलने वाली दो प्रकार की संस्थाएँ है: कुछ आश्रम और परमश्रुत प्रभावक मंडल । आश्रमों के विषय में तो इतना ही बताना पर्याप्त होगा कि आश्रम के संचालकों तथा आश्रमवासियों को उस प्रकार से व्यवस्थित अभ्यास तथा चिंतनक्रम आयोजित करना चाहिए जिससे श्रीमद्जी द्वारा सूचित शास्त्राभ्यास, मनन तथा स्वयं निर्णय लेने की वृत्ति का ही विकास हो। उनकी चरणपादुका या छबि - चित्रपट आदि की सुवर्ण पूजा करने के स्थान पर उनकी सादगी तथा वीतरागभावना के योग्य तथा विचारकों की दृष्टि में परिहास का भाजन न बने उस प्रकार की योग्य भक्ति को स्थान दिया जाना चाहिए।
‘परमश्रुत प्रभावक मंडल' ने आज तक व्यापक दृष्टि से राष्ट्रीय भाषा में अनेक पुस्तक प्रकाशित किये हैं। वैसे देखें तो यह प्रयास स्तुत्य माना जा सकता है, परंतु वर्तमान समय में उपस्थित आवश्यकता लोगों की साहित्य विषयक माँग और विकासक्रम को ध्यान में लेकर मंडल को संपादन-मुद्रण का दृष्टिबिंदु बदलना ही चाहिए। पुस्तकों का चयन, अनुवाद की रीत, उसकी भाषा तथा प्रस्तावना, परिशिष्ट आदि कैसे और कितने छोटे-बड़े होने चाहिए ये सब बातें निश्चित करने के लिए मंडल के द्वारा कम से कम दो-तीन विद्वानों की समिति का गठन किया जाना चाहिए। तथा उनके द्वारा ही अनुवादकर्ताओं तथा संपादकों का चयन करने का, लेख आदि सामग्री तैयार होने के बाद उन्हें जाँचने आदि का कार्य करवाकर पुस्तक मुद्रण के लिए भेजे जाय ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। इस मंडल के द्वारा आज तक प्रकाशित असंख्य पुस्तकों को जब देखता हूं, तब मूल पाठ, अनुवाद, भावकथन, संशोधन आदि से संबंधित अनगिनत अक्षम्य भूलों को देख कर व्यापारी जैन समाज के हाथों साहित्य की तेजस्वी आत्मा का हनन हो रहा हो ऐसे दृश्य का अनुभव कर रहा हूँ।
'श्रीमद्रराजचंद्र' ग्रंथ का हिंदी या अन्य किसी भाषा में अनुवाद करने में रुचि रखने वाले उनके अनेक भक्त हैं। उनका ध्यान इस बात की ओर खींचना आवश्यक