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प्रज्ञा संचयन और फिर भी तत्कालीन गच्छ, पंथ और एकांत प्रवृत्ति का स्वानुभवसिद्ध वर्णन तथा समालोचन भी उसमें है। सर्वसाधारण के लिए तो नहीं, परंतु जैन मुमुक्षुओं के लिए तो यह गीता के समान ही सिद्ध होता है। अगर इसमें जैन परिभाषा को गौण करके बाद में व्यापक धर्मसिद्धांतों की चर्चा की होती तो वह भाग गीता के द्वितीय अध्याय का स्थान लेता। आज गीता के समान सर्वमान्य बन सके ऐसे पद्यात्मक ग्रंथ की माँग जैन लोगों के द्वारा की जाती है। अगर श्रीमद्जी के समक्ष स्पष्ट रूप में यह बात आई होती तो उन्होंने उस कमी को गुजराती भाषा के द्वारा योग्य रूप से दूर किया होता। यह सही है कि इसे समझने के लिए अधिकार-योग्यता आवश्यक है। तर्कशास्त्र की शुद्ध एवं क्रमिक दलीलें बुद्धिशोधन के बिना समझ में नहीं आ सकतीं। एक ओर देखें तो कई लोग दुराग्रह के कारण इसे जानने-समझने का या स्पर्श करने का भी प्रयत्न नहीं करते हैं तो दूसरी ओर इसे सर्वस्व माननेवाले, इसका सदा पाठ करनेवाले, इसे समझने की तैयारी वास्तव में करते ही नहीं हैं। ये दोनों एकांत (अतियाँ) हैं।
‘आत्मसिद्धि शास्त्र' के संस्कृत, हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा में भाषांतर हुए हैं परंतु उसकी वास्तविक खूबी मूल गुजराती में ही है। जैन परंपरा के सर्वमान्य प्रामाणिक गुजराती धर्मग्रंथ के रूप में यह शास्त्र सरकारी, राष्ट्रीय या अन्य किसी भी संस्था के पाठ्यक्रम में स्थान लेने की योग्यता रखता है।
विशिष्ट भाषांतर कृतियों में दिगंबर आचार्य रूंदकुदकृत प्राकृत 'पंचास्तिकाय' का श्रीमद्जी द्वारा किया गया गुजराती भाषांतर समाविष्ट होता है (७००)। विवेचन कृतियों में आध्यात्मिक श्वेतांबर मुनि आनंदघनजी (६९२) चिदानंदजी (९) के कतिपय पद्य पर उनके द्वारा किये गये विवेचन प्राप्त होते हैं। प्रसिद्ध दिगंबर तार्किक समंतभद्र के केवल एक ही प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक का विवेचन श्रीमदजी ने किया है । (८६८) यह विवेचन प्रमाण की दृष्टि से नहीं, परंतु गुण की दृष्टि से इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि किसी भी विवेचक के लिए मार्गदर्शक बनने की योग्यता-क्षमता ये रखते हैं। ये विवेचन पांडित्य में से नहीं, बल्कि सहजरूप से उत्पन्न आध्यात्मिकता में से प्रस्फुटित हुए हों ऐसा भास होता है।
'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?' इस ध्रुव पंक्तिवाला श्रीमद्जी का काव्य (४५६) आश्रम भजनावली में स्थान प्राप्त करने के कारण केवल जैनों में या