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प्रज्ञा संचयन
होगा। अतः मध्यम मार्ग का स्वीकार करते हुए इस विषय की चर्चा करना मैं उचित समझता हूँ।
श्रीमद्जी की असाधारण स्मरणशक्ति अर्थात् स्मृति का प्रमाण है उनकी विलक्षण अवधानशक्ति । उसमें भी उनकी कुछ विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि कुछ अन्य अवधानकर्ताओं की तरह उनके अवधानों की संख्या, संख्या में वृद्धि करने के हेतु से हुई नहीं थी। दूसरी और अधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उनकी अवधानशक्ति बुद्धिव्यभिचार से तनिक भी वंध्य नहीं बनी थी, बल्कि उसमें से विशिष्ट सर्जनशक्ति प्रकट हुई थी जो अन्य अवधानकर्ताओं में शायद ही देखी जाती है। उसमें उनकी विशेषता यह है कि जिसके द्वारा हज़ारों-लाखों लोगों को क्षण भर में प्रभावित कर के अपने अनुगामी बनाया जा सकता है, असाधारण प्रतिष्ठा एवं अर्थलाभ की प्राप्ति की जा सकती है ऐसी अद्भत अवधानशक्ति होते हुए भी, योगविभूतियों की भाँति उन्हें त्याज्य मान कर उसका उपयोग अन्तर्मुख कार्य के लिए किया, जो कि किसी अन्य साधारण मनुष्य के लिए असंभव है।
किसी भी वस्तु के वास्तविक हार्द को समझ लेना - तत्क्षण समझ लेना - मर्मज्ञता कहलाता है । सोलह वर्ष से भी कम आयु में रचित 'पुष्पमाला' में प्रसंगोपात्त राजा का अर्थ बताते हुए वे कहते हैं - राजा भी प्रजा के प्रिय सेवक हैं ('राजा प्रकृतिरञ्जनात्' - कालिदास । पुष्पमाला-७०)। यहाँ 'प्रजा' और 'सेवक' दोनों शब्द मर्मसूचक हैं । शिक्षित समाज में कुछ ऐसा ही खयाल व्याप्त होता जा रहा है । सत्रहवें वर्ष में लिखी गई ‘मोक्षमाला' में मानव की जो परिभाषा सूचित करते हैं वह कितनी मर्मग्राही - मार्मिक है। मनुष्यत्व को जो समझे वही मानव कहलाता है' (मोक्षमाळा-४)। यहाँ 'समझे' और 'वही' ये दोनों शब्द मर्मग्राही हैं, अर्थात् मनुष्य की आकृति मनुष्य का रूप प्राप्त कर लेने से कोई मनुष्य नहीं बन जाता। उसी मोक्षमाला' में मनोजय का मार्ग दिखाते हुए वे कहते हैं - मन जो दुरिच्छा करे उसे भुला देना चाहिए (मोक्षमाला-६८) अर्थात् विषय रूपी आहार से उसको पुष्ट नहीं करना चाहिए । यहाँ 'दुरिच्छा' तथा 'उसे भुला देना चाहिए' ये दोनों शब्द मार्मिक हैं । उसी किशोरवय में लिखी गई ‘मोक्षमाला' कृति में (मोक्षमाला-९) संगठन बल से लक्ष्मी, कीर्ति एवं अधिकार प्राप्त करने वाली 'आंग्लभौमियो' का उदाहरण लेकर अज्ञान के संकट में फंसे हुए जैन तत्त्व को प्रकाशित करने हेतु वे महान् समाज की स्थापना का स्वप्न देखते हैं ।