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प्रज्ञा संचयन
१४ कवित्व
श्रीमद् केवल गद्य के ही लेखक नहीं थे, उन्होंने कविताओं की भी रचना की है। उन दिनों कई लोग उन्हें जैन कवि' के नाम से ही जानते थे तथा कई लोग उनके अनुगामी गण को कवि संप्रदाय' के रूप में ही पहचानते थे।
. यद्यपि वे कोई महान कवि न थे या उन्होंने किसी महान काव्य की रचना भी नहीं की है, फिर भी उनकी कविताओं को देखने से ऐसा लगता है कि कवित्व का बीज-वस्तुस्पर्श और प्रतिभा एवं अभिव्यक्तिसामर्थ्य - उनमें था। उनकी कविता अन्य गद्य रचनाओं की भाँति आध्यात्मिक विषयस्पर्शी ही है । उनके प्रिय छंद दलपत, शामळ भट्ट आदि के अभ्यस्त छंदों में से ही हैं । उनकी काव्य भाषा प्रवाहबद्ध है । सहज भाव से सरलता पूर्वक प्रतिपाद्यविषय को अपनी गोद में लेकर वह प्रवाह कहीं जोश के साथ, तो कहीं चिंतनसुलभ गंभीर गति में बहता जाता है। सोलह साल की आयु से भी पूर्व रचित कविताएँ स्वाभाविक रूप से ही शब्दप्रधान तथा शाब्दिक अलंकारों के कारण पाठक को आकर्षित करने वाली हैं । बाद की कविताएँ वस्तु एवं भाव दोनों दृष्टि से उत्तरोत्तर गंभीर बनने के कारण, उनमें शाब्दिक अनुप्रास स्वाभाविक रूप से गौण बन जाते हैं।
श्रीमद् के प्राथमिक जीवन की कविताओं के विषय भारतप्रकृतिसुलभ वैराग्य, दया, ब्रह्मचर्य इत्यादि हैं । बाद की प्रायः सभी कवताएँ जैन संप्रदाय की भावनाओं को तथा तात्त्विक तथ्यों को दृष्टि में रखकर की गईं हैं । जिस प्रकार आनंदघन, देवचंद्रजी तथा यशोविजयजी के कुछ पद भाव की सूक्ष्मता तथा कल्पना की उच्चगामिता के कारण तत्कालीन गुजराती साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सके ऐसे हैं, फिर भी ये सभी पद्य जैन संप्रदाय की ही वस्तु को स्पर्श करते हुए, साधारण गुजराती साक्षरों से अधिकतर अपरिचित सम ही रहे हैं, उसी प्रकार श्रीमद्जी की रचनाओं के विषय में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है । पूज्य गाँधीजी ने 'अपूर्व अवसर' को आश्रम भजनावली में स्थान दिया न होता तो मुझे नहीं लगता कि कभी भी साधारण जनता को उसका परिचय प्राप्त हुआ होता ।
श्रीमद्जी का आत्मसिद्धिशास्त्र' भी दोहों में निबद्ध है । उसका विषय पूर्णतः दार्शनिक, तर्कप्रधान एवं जैन संप्रदाय सिद्ध होने के कारण लोकप्रियता की कसौटी