________________
१२
प्रज्ञा संचयन
उनकी जिज्ञासा इतनी प्रबल थी कि छोटे बड़े सब के पास से आवश्यक तत्त्व वे अवश्य प्राप्त कर लेते थे ।
उस युग में गुजरात में, विशेष रूप से मूर्तिपूजक और स्थानकवासी जैन परंपरा के लोगों को दिगंबर साहित्य का परिचय करानेवाले, उस साहित्य के प्रति रुचि एवं आदरभाव जगाने वाले प्रथम व्यक्ति यदि कोई हो तो वे श्रीमद्जी ही थे । यद्यपि मुंबई जैसे नगर में, जहाँ उन्हें दिगंबर मित्रों के संपर्क की संभावना अधिक थी वहाँ उन्होंने दिगंबर परंपरा के अनुयायियों को श्वेतांबर साहित्य का परिचय प्राप्त हो और उस दिशा में उनकी रसवृत्ति जाग्रत हो ऐसा प्रयत्न उन्होंने अवश्य किया होगा परंतु श्वेतांबर परंपरा ने दिगंबर परंपरा के साहित्य को उस समय से लेकर आज पर्यंत जितना अपनाया है उसकी तुलना में दिगंबर परंपरा ने उसका शतांश भी श्वेतांबर साहित्य को अपनाया नहीं है । फिर भी एक दूसरों के शास्त्रों के सादर अध्ययन-मनन के द्वारा तीनों शाखाओं के बीच एकता का भाव जगाने का तथा अन्य शाखा की समृद्धि के द्वारा अपनी अपूर्णता को दूर करने की प्रक्रिया के आरंभ का श्रेय तो श्रीमद्जी को ही है जिसने आगे जा कर परमश्रुत प्रभावक मंडल के रूप में कुछ अंशों में मूर्त रूप धारण किया है ।
प्राज्ञ पुरुष हर परिस्थिति से लाभ प्राप्त कर ही लेता है उस न्याय से श्रीमद् को प्रथम स्थानकवासी परंपरा प्राप्त हुई वह उनके लिए एक विशेष लाभ में ही परिणत हुई; और वह यह कि स्थानकवासी परंपरा में प्रचलित मूल आगमों का अभ्यास उनके लिए अत्यंत सुलभ हुआ जो कि श्वेतांबर परंपरा मे गृहस्थ के लिए पहले से होना उतना संभव नहीं होता - और उसका प्रभाव उनके जीवन में अमीट बन गया । आगे जा कर श्वेतांबर परंपरा के प्रचलित संस्कृतप्रधान तथा तर्कप्रधान ग्रंथों के अवलोकन ने उनकी आगमरुचि एवं आगम प्रज्ञा को अधिक प्राञ्जल बनाया । दिगंबर साहित्य के परिचय ने उनकी सहज वैराग्य वृत्ति तथा एकांतवास की वृत्ति को विशेष रूप से उत्तेजित किया। जैसे जैसे उनके शास्त्रज्ञान से संबंधित परिचय एवं विकास में वृद्धि होती गई वैसे वैसे उनमें पहले से योग्य परिचय एवं जानकारी के उदाहरणार्थ अभाव के कारण जो एकांतिक संस्कार दृढ़ हो गये थे 'पुष्पपांखड़ी ज्यां दुभाय, जिनवरनी, त्यां नहीं आज्ञाय' - वे दूर हो गये । और
-
--