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प्रज्ञा संचयन गुरुदेव) अचानक, अप्रत्याशित रूप से, असमय ही स्वधाम सिधार गए। पंछी के नीड़ नष्ट हुए . . .पर पर ऊपर तीर भोंके गए . . . और स्वप्न अधूरे रहे, जीवन प्रवाह अनवरत धंसते रहे.... कब होंगी वे विराट भावनाएँ इस लघु अल्पात्मा से, अल्पजीवन से अब पूर्ण?'
और पुनः आता हूँ पंडितजी की उस प्रज्ञाभूमि सरित् कुंज' के भग्नावशेष के जड़वत् खड़े एकमात्र नाम-पट्ट-धारक खम्बे के पास।
पलभर वहाँ खड़े खड़े खो जाता हूँ पुरातन ‘सरितकुंज' की एवं उसके उद्यान में घूम रहे पावन प्रज्ञा पुरुष पंडितजी की दर्शन-स्मृति में। . . . और पाता हूँ उस स्मृति लोक में -
यही वह बड़ी पक्की दीवारोंवाला, हँसता झगमगाता हुआ, सरित् कुंज का प्रासाद . . . ! आगरा-वाराणसी से आकर एवं साबरमती-विद्यापीठ और अनेकांत विहार से भी अधिक अलख जगाई यहीं पर - विद्या वटवृक्ष पंडितजी ने . ..!! यहीं से उठ रहा है गुञ्ज-अनुगुञ्ज भर रहा है उनकी पश्यन्ति' के प्रदेश-पार का परा-वाणी का घोष - ____ “प्रत्येक मनुष्य व्यक्ति अपरिमित शक्तियों के तेज का पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य।" (सं. योगविद्या : दर्शन और चिंतन - पृ. २३०) ___ और पश्चिम द्वार सरितकुंज के पूर्व में उदित सूर्य और ईशान कोण में स्थित पंडितजी के उस चिरंतन विद्या-कक्ष से प्रतिघोष उठ रहा है पच्चीस सौ वर्ष पूर्व की परमप्रभु महावीर की प्रशान्त प्रज्ञापूर्ण देशना-वाणी का, पंडितजी की उस परावाणी के घोष को प्रमाणित करता हुआ -
'अहो! अनंतवीर्यमयमात्मा!' (अनंत शक्तियों का पुञ्ज है यह आत्मा!)
फिर ये दोनों घोष-प्रतिघोष सतत घूमराते रहते हैं, छाए रहते हैं 'सरित् कुंज' के समग्र वातावरण पर और सम्मिलित होकर, झकझोरते हुए प्रश्न उठाते हैं वहाँ से बेखबर गुज़र जानेवालों और उस पुरातन विद्या-साधन-आश्रमवत् सरित् कुंज को गिरानेवालों से - ___ “तुमने कभी देखा, पहचाना, यहीं मेरी इसी पावनभूमि पर बस गए, अनंत शक्तियों के पुञ्ज एक पवित्र प्रज्ञापुरुष को? ... यहाँ उसकी कोई स्मृति? उसकी न