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प्रज्ञा संचयन "शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम ।
बीजं कहीए केटलुं? कर विचार तो पाम ।।"
अर्थात् और कहें कितना? चिंतन की गहनता में प्रवेश करने पर अपने इस विशुद्ध आत्मस्वरूप की, परम सत् की, उपलब्धि हो जाती है। .
युवा पं. सुखलाल इस आत्म-दर्शक विद्या-प्राप्ति के ज्ञानमार्ग की ओर बढ़ने लगे थे आपनी गहन चिन-प्रज्ञा के द्वारा। अब ऐसी ज्ञानलक्षी विद्यापराविद्या की अध्ययन-वृत्ति ही दृढ़ होने लगी थी, शेष सब कुछ गौण । हाँ, इस हेतु, आत्मलक्ष्य को केन्द्र में रखकर, अपने ज्ञानमार्ग पर कदम बढ़ाते जाने के उपक्रम में उन्हें अभी बहुत कुछ सीखने की पिपासा जागी थी - संस्कृत भाषा ज्ञान, व्यापक जैन दर्शन एवं अधिकृत सही जैनागमों का ज्ञान, जैनेतर सर्व दर्शनों का तुलनात्मक ज्ञान, तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र और संबंधित अनेक अनेक विषय।
जिज्ञासा थी अधिकाधिक विषयों-विद्याओं का अध्ययन करने की, स्वप्नदशा थी ज्ञान के विशद विशाल लोकों में ऊर्ध्वविहार कर नूतन आलोक पाने की, परंतु अपनी वर्तमान अवस्था ? वह तो थी अपार प्रतिकूलताओं से भरे हुए एक अन्याश्रित अकिंचन व्यक्ति की !!
दुन्यवी दृष्टि की ऐसी दीन-दैन्यावस्था के बीच होते हुए भी भीतर से वे प्रज्ञासम्पदार्थ संकल्पबद्ध हो चुके थे। उनकी वह स्वप्नदशा अब एक संकल्पदशा बन गई थी। और जहाँ ऐसी अदम्य संकल्पबद्ध सदीच्छा होती है वहाँ कौन रोक सकता है? ऐसी अप्रमत्त सत्पुरुषार्थ की तत्परता के सन्मुख स्वयं नियति ही अपने अपार संभावनाओं से भरे अवरुद्ध द्वार खोल देती है।
युवा स्वप्नदर्शा सुखलाल के साथ यही हुआ। उनका उपादान-संकल्प ही ऐसे अवसर को खोज ले आया। उन्हें लीमली गाँव के लघु क्षेत्र से विद्याभूमि वाराणसी के विशाल विराट विद्याक्षेत्र में प्रवेश कराने का बड़ा निमित्त अनायास ही उपलब्ध हो गया।
उस समय विद्यासंनिष्ठ आचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी की वाराणसीकाशी में पाठशाला खुलने जा रही थी। यह समाचार सुनकर सुखलाल अति प्रसन्न