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प्रज्ञा संचयन
पौरुषम्र" रश्मिरथी कर्ण की इस पूर्वकथित उक्ति को साकार करनेवाले, जीवनप्रवाह-परिवर्तक पंडितजी की असामान्य जीवन झाँकी पर एक दृष्टि डालें ।
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पिता संघजीभाई संघवी विशा श्रीमाली जैन, उस छोटे से लीमली गाँव में व्यापार करते थे । सामाजिक देखा-देखी के गलत रस्मो-रिवाज़ों का उन्हें पालन करना पडता था । किशोर सुखलाल समझदार होने पर अपनी तीक्ष्ण विवेकबुद्धि से उन सब का, समय समय पर विरोध - विद्रोह भी कर देते थे ।
माता चार वर्ष की आयु में ही स्वर्गवासी हो गई थी। मृदु, वत्सल, स्नेहसौजन्यमयी, मातृत्वपूर्ण विमाता जड़ीबाई ने उन्हें इतना तो वात्सल्य प्रदान किया था कि कई वर्षों के बाद ही 'वे विमाता थी' ऐसा उन्हें पता चल पाया था। उनका भी चौदह वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो जाने से वे मातृसुख से वंचित हो गए। परंतु संघवी परिवार में आकर बसे हुए वत्सल - प्रेमी श्री मूलजीकाका एक 'पुरुषमाता' बनकर उनकी देखभाल करते रहे ।
साहसप्रिय, विविध क्रीडा पटु, परिश्रमी, स्वावलंबी, सेवाभावी, आज्ञांकित, विवेकी, व्यवस्थाप्रिय एवं तीव्र परमबुद्धि युक्त सुखलाल पढ़ाई में इतने सजग और दक्ष थे कि पठित विषय उन्हें शीघ्र ही कंठस्थ हो जाता था । ये शायद ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम - परिचायक उनके पूर्वसंस्कार थे । सातवीं श्रेणी उत्तीर्ण करने के पश्चात् आगे अंग्रेज़ी पढ़ने की उनकी दुर्दम इच्छा को उन्हें पिता द्वारा दुकान पर बिठा देने के कारण छोड़ देना पड़ा। सुखलाल सफल व्यापारी तो बनने लगे, परंतु उनकी जागृत भीतरी विवेकदृष्टि और असत्यों के प्रति विद्रोहवृत्ति के कारण वे तब प्रवर्त्तमान खर्चाले त्यौहार और फिज़ूलखर्ची के अतिथि सत्कारादि पर वे इस प्रकार प्रहार भी करते रहे -
" इन सब को मैं देखा करता पढ़ना-लिखना छोड़कर इस प्रकार के खर्चीले रिवाज़ों में लगे रहने से कोई भला नहीं होगा ।"
परंतु उनकी इस पढ़ने-लिखने को विवशतावश छोड़ देने की अंतर्व्यथा को जीवन-मृत्यु बीच झुला देनेवाली और चेचक के रोग द्वारा जीवनभर अंधत्व दे डालनेवाली विपरीत परिस्थिति ने दूसरे ढंग से 'blessings in disguise' वत् बदल देकर परिशान्त और अन्यथा सिद्ध कर देने का अवसर प्रदान कर दिया ।