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दोनों कल्याणकारी : जीवन और मृत्यु
लगा और दूसरी ओर दलितों के रक्त में जो घुलमिल गई थी वह दीनवृत्ति निर्मूल होने लगी। एक दिशा से ऊर्ध्वारोहण और दूसरी दिशा से निम्नावरोहण - इन दोनों प्रक्रियाओं ने देश में वर्णधर्म को नूतन स्वरूप प्रदान किया । हज़ारों वर्षों से अपनी जड़ें जमाकर बैठा हुआ जातिगत उच्च-नीचभाव का विषवृक्ष बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक या दयानन्द आदि के द्वारा भी निर्मूल न हो सका था उसकी जड़ों को गांधीजी ने उखाड दिया और उसके परिणामस्वरूप जिसका अस्तित्व हज़ारों वर्ष पुराना है वह अस्पृश्यता अब अंतिम साँसें गिन रही है । हिंदु धर्म और हिंदु जितने पुरातन उतने ही वे भव्य माने जाते हैं, परंतु उसका अस्पृश्यता का कलंक भी उतना ही पुराना और अभव्य है । जब तक यह कलंक है तब तक हिंदु धर्म को धर्म कहना या हिंदु संस्कृति को संस्कृति कहना केवल भाषाविलास है ऐसा मानते हुए गाँधीजी ने हिंदु धर्म एवं हिंदु संस्कृति को निष्कलंक बनाने हेतु भगीरथ प्रयत्न किया और वह भी अपनी अहिंसावृत्ति के साथ । उनका यह कार्य ऐसा है कि दुनिया के प्रत्येक देश में वह हिंदु धर्म तथा संस्कृति को भव्यता प्रदान कर सकता है और हिंदु कहलानेवाले सब लोगों के लिए जो लज्जास्पद तत्त्व था उसे मिटा कर उन्हें गौरव सहित जीने की हिम्मत प्रदान कर सकता है । आज जो लोग अपनी कट्टरता के कारण अस्पृश्यता निवारण के कार्य में बाधा बन रहे हैं वे अगर आनेवाली पीढी तथा दुनिया के टीकाकारों को हिंदु धर्म पर लगे अस्पृश्यता के लांछन के विषय में कुछ भी सच्चा उत्तर देने के लिए तैयार होंगे तो उन्हें गाँधीजी की शरण लेनी ही पड़ेगी । उन्हें यह कहना पड़ेगा कि नहीं, नहीं, हमारा हिंदु धर्म एवं हमारी हिंदु संस्कृति तो ऐसे हैं कि जिसने गाँधीजी जैसे महान पुरुष को जन्म दिया और गाँधीजी के द्वारा आत्मशोधन किया । गोडसे के हाथों को रक्तरंजित करानेवाले - गोडसे को गाँधीजी की हत्या के लिए प्रेरित करनेवाले वक्रमति वर्ग को भी नई पीढ़ी की दृष्टि में प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा होगी तो गाँधीजी की अहिंसा का पूर्ण स्वीकार करने के बाद ही प्राप्त कर सकेंगे । गाँधीजी ने कभी भी किसीका अहित करने की कल्पना तक नहीं की है । ऐसी कल्याणगुणधाम विभूति अपनी स्थूल मृत्यु के द्वारा भी कल्याणमयी भावनाओं को प्रसरित करने का ही काम करेगी । ईश्वर एक या दूसरे मार्ग से सब को सदबुद्धि के पाठ ही पढ़ाते हैं । वक्रमति तथा दुर्बुद्धि लोगों को एक रीति से, तो दूसरे लोगों को दूसरी रीति से सुधरने का अवसर ही प्रदान करते हैं । अतः हमें यह दृढ़तापूर्वक मानना चाहिए कि गाँधीजी की मृत्यु की घटना के पीछे