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प्रज्ञा संचयन
साधन रूप से जिस धर्म का आविर्भाव, विकास और प्रचार हुआ हो वह निवर्तक धर्म कहलाता है। इसका असली अर्थ समझने के लिए हमें प्राचीन किन्तु समकालीन इतर धर्म-स्वरूपों के बारे में थोड़ा सा विचार करना होगा। धर्मों का वर्गीकरण
इस समय जितने भी धर्म दुनियां में जीवित हैं या जिनका थोडा-बहुत इतिहास मिलता है, इन सब के आन्तरिक स्वरूप का अगर वर्गीकरण किया जाय तो वह मुख्यतया तीन भागों में विभाजित होता है:
१ - पहला वह है, जो मौजूदा जन्म का ही विचार करता है। २ - दूसरा वह है जो मौजूदा जन्म के अलावा जन्मान्तर का भी विचार करता
३ - तीसरा वह है जो जन्म जन्मान्तर के उपरान्त उसके नाश का या उच्छेद का भी विचार करता है।
अनात्मवाद
आज की तरह बहुत पुराने समय में भी ऐसे विचारक लोग थे जो वर्तमान जीवन में प्राप्त होनेवाले सुख से उस पार किसी अन्य सुख की कल्पना से न तो प्रेरित होते थे और न उसके साधनों की खोज में समय बिताना ठीक समझते थे । उनका ध्येय वर्तमान जीवन का सुख-भोग ही था। और वे इसी ध्येय की पूर्ति के लिए सब साधन जुटाते थे। वे समझते थे कि हम जो कुछ हैं वह इसी जन्म तक हैं और मृत्यु के बाद हम फिर जन्म ले नहीं सकते। बहुत हुआ तो हमारे पुनर्जन्म का अर्थ हमारी सन्तति का चालू रहना है। अत एव हम जो अच्छा करेंगे उसका फल इस जन्म के बाद भोगने के वास्ते हमें उत्पन्न होना नहीं है। हमारे किये का फल हमारी सन्तान या हमारा समाज भोग सकता है। इसे पुनर्जन्म कहना हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं। ऐसा विचार करने वाले वर्ग को हमारे प्राचीनतम शास्त्रों में भी अनात्मवादी या नास्तिक कहा गया है। वही वर्ग कभी आगे जाकर चार्वाक कहलाने लगा। इस वर्ग की दृष्टि में साध्य-पुरुषार्थ एक मात्र काम अर्थात् सुख-भोगही है। उसके साधन रूपसे वह वर्ग धर्म की कल्पना नहीं करता या धर्म नाम से तरह-तरह के विधि-विधानों पर