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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ 78 से उत्पन्न हुए इन्द्रियों को तृप्त करने वाले उत्तम सुख और ऋद्धियों से उत्पन्न हुए सुख का अनुभव करने लगे। अपनी आयु पूर्ण होने के बाद उन सभी ने वहाँ से चयकर पुनर्जन्म धारण किया। उनमें से कनकमाला का जीव मैं मणिकुण्डल, कनकलता, पद्मलता दोनों पुत्रियों का जीव, स्वर्ग से देव पर्याय छोड़कर अवशेष पुण्यकर्म के उदय से तुम दोनों इन्द्र तथा उपेन्द्र नामक राजपुत्र हुए हो। तथा पद्मावती का जीव, जो सौधर्म स्वर्ग में अप्सरा हुई थी, वहाँ से चयकर यह रूपवती अनन्तमती विलासिनी बनी है। मैं १००८ श्री अमितप्रभ तीर्थंकर के मुख से यह शुभ तथा उत्तम कथा सुनकर पूर्वजन्म के स्नेहवश तुमको समझाने आया हूँ। ___ इस कथा को सुनकर वे दोनों भाईयों ने अपनी निन्दा करके संसार से विरक्त होकर शुभकर्म के उदय से सुधर्म नामक मनिराज के पास जाकर मुनिराज को नमस्कार किया एवं संसार से उदास (विरागी) होकर बाह्य व अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करके उत्कृष्ट संयम धारण किया। उन दोनों मुनिराजों ने शुक्लध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को शीघ्र ही जला दिया तथा उसके फलस्वरूप केवलज्ञान प्राप्त किया। और वे दोनों शुक्लध्यानरूपी तलवार से समस्त कर्मों का नाश करके मोक्ष पधारे, अनन्त गुणों के पात्र बन गये। अनन्तमति ने भी श्रावक के सम्पूर्ण व्रत धारण किये और धर्म के प्रभाव से स्वर्ग में उत्पन्न हुई। सत्य है कि सज्जनों के अनुग्रह से क्या-क्या प्राप्त नहीं होता। देखो ! श्री शान्तिनाथ के पूर्व के एक भव में उनके दो पुत्र एक दासी के लिए अन्दर ही अन्दर लड़ते हैं और फिर उसी प्रसंग को निमित्त बनाकर वैराग्य प्राप्त करते हैं, “मैं वर्तमान में परिपूर्ण भगवान ही हूँ' - ऐसी दिव्यदृष्टि करके वे दोनों भाई शिवसुन्दरी को वरते हैं। यहाँ आचार्य देव फरमाते हैं कि पापी जीव भी चैतन्य की अनन्तशक्ति की सामर्थ्य के विश्वास के बल से भवसागर से पार हो जाता है। - शान्तिनाथ पुराण पर आधारित
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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