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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ वह तो सुधर गया, पर हम... एक गाँव में एक कृषक रहता था, वह जब देखो तब नास्तिक जैसी ही बातें करता रहता था। पुण्य-पाप, परलोक आदि को नहीं मानता था। वह कहता था कि 'मेरा देवता तो मेरा खेत-खलियान ही है, जब मैं इसमें बीज ही नहीं बोऊँगा, तब मुझे खाने के लिए कौन देकर जायेगा। अत: अनुकूल संयोग पुण्य से मिलते हैं और पाप से छूट जाते हैं - इस बात कुछ भी दम नहीं है।' हमेशा की तरह एक बार उसने अपने खेत में बीज बोया, उसे पानी से सींचा, जानवरों से बचाया, फसल भी पक कर तैयार हो गई; परन्तु फसल उसे प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि दाना निकालने के पूर्व ही उसके खेत में भयंकर आग लग गई और सारा अनाज जलकर राख हो गया। जब उसने सम्पूर्ण फसल नष्ट होते हुए अपनी आँखों से देखी और कुछ न कर पाया, तब अचानक उसके मुँह से निकला – “हे भगवान ! मैंने ऐसे कौन से पाप किये, जिसके फल में मुझे ऐसा दिन देखना पड़ा।" तब उसके पास खड़े उसके साथियों में से एक ने कहा - भाई ! आप न तो भगवान को मानते हो और न ही पाप-पुण्य को, फिर ऐसी बातें क्यों करते हो? दूसरा बोला - आप तो सबका कर्ता-धर्ता स्वयं को ही मानते हो, फिर अब मूक दर्शक बने क्यों खड़े रहे ? ___ तीसरा कुछ सज्जन सा व्यक्ति बोला - अरे, यह समय इसप्रकार की व्यंगोक्ति करने का नहीं है। यह तो उसके प्रति दया, करुणा और सहयोग करने का समय है। चौथा बोला – यह बात बिल्कुल ठीक है, पहले हम सब मिलकर
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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