SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ की, उसी का यह मीठा फल है। वह सेठजी के यहाँ तीन वर्ष तक रहा। फिर पूरी ईमानदारी से अपना स्वाधीन धंधा कर जीवन-यापन करता हुआ धर्म धारण कर सुखी हो गया। इसीप्रकार ज्ञानी जीव इस जगत में भटकते संसारी जीवों को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि तुम दुःखी नहीं हो, तुम तो सुख से भरे हुए आत्मा हो। ___अज्ञानी भव्यात्मा जिज्ञासा व आश्चर्य से पूछता है कि क्या मैं सचमुच सुख से भरा हुआ हूँ ? आचार्य कहते हैं – हाँ! अज्ञानी भव्यात्मा - कैसे ? आचार्य कहते हैं - सबसे पहले तो तुम अपने को दुःखी मानना छोड़ दो, परद्रव्य से अपने को सुखी मानना छोड़ दो और हमारी बात ध्यान से सुनो। अज्ञानी भव्यात्मा बोला – मानने से क्या होगा ? आचार्य कहते हैं – मानकर तो देखो, स्वयं पता चल जायेगा। अज्ञानी भव्यात्मा आचार्य की यह बात स्वीकार कर यह मानने लगा कि मैं दु:खी नहीं हूँ, मैं परद्रव्य से सुखी नहीं होता। परन्तु अपने को सुखी तो फिर भी नहीं देख पाया। अत: आचार्य से बोला-महाराज मैंने आपके कहे अनुसार मान तो लिया है, पर सुखी तो नहीं हुआ। आचार्य बोले - अब तुझे क्या दुःख है ? वह बोला-अकेले मन ही नहीं लगता, बार-बार वहीं जाता है और उनकी याद में और भी ज्यादा दु:खी हो जाता हूँ।-- आचार्य ने कहा – किसकी याद आती है ? वह बोला – दुकान की, धंधे की, परिवार की, भोगों आदि की। आचार्य बोले - गाँव के बाहर जो आम का बाग है, उसकी याद आती है कि नहीं ? वह बोला - उसकी तो याद नहीं आती।
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy