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________________ 49 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ व्यापारी की कौन सुने ? सागर की एक विकराल तरंग। ओह ! यह क्या? पुनः वज्रपात हुआ और उसके प्रकाश में.....? जहाज जोर से ऊपर को उछला और नीचे गिरकर जल में विलुप्त हो गया। सागर की गोद में समा गया। उसके आंगोपांग इधर-उधर बिखर गये। हाय, बेचारा व्यापारी, कौन जाने उसकी क्या दशा हुई। प्रभात हुआ। एक तख़ते पर पड़ा सागर में बहता हुआ कोई अचेत व्यक्ति भाग्यवश किनारे पर आ गया। सूर्य की किरणों ने उसके शरीर में कुछ स्फूर्ति उत्पन्न की। उसने आँखें खोलीं। मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ हूँ ? यह कौन देश है ? किसने मुझे यहाँ पहुँचाया है ? मैं कहाँ से आ रहा हूँ? क्या काम करने के लिए घर से निकला था ? मेरे पास क्या है ? कैसे निर्वाह करूँ ? सब कुछ भूल चुका है अब वह। __उसे नवजीवन मिला है, यह भी पता नहीं है उसे। किसकी सहायता पाऊँ, कोई दिखाई नहीं देता। गर्दन लटकाये चल दिया, जिस ओर मुँह उठा। एक भयंकर चीत्कार। अरे ! यह क्या ? उसकी मानसिक स्तब्धता भंग हो गयी। पीछे मुड़कर देखा। मेघों से भी काला, जंगम-पर्वत तुल्य, विकराल गजराज ढूँढ़ ऊपर उठाये, चीख़ मारता हुआ, उसकी ओर दौड़ा। प्रभु ! बचाओ। अरे पथिक ! कितना अच्छा होता यदि इसी प्रभु को अपने अच्छे दिनों में भी याद कर लिया होता। अब क्या बनता है, यहाँ कोई भी तेरा सहारा नहीं। दौड़ने के अतिरिक्त शरण नहीं थी। पथिक दौड़ा, जितनी जोर से उससे दौड़ा गया। हाथी सर पर आ गया और धैर्य जाता रहा उसका। अब जीवन असम्भव है। “नहीं पथिक तूने एक बार जिह्वा से प्रभु का पवित्र नाम लिया है, वह निरर्थक न जायेगा, तेरी रक्षा अवश्य होगी", (अन्तर्मन से) आकाशवाणी हुई। आश्चर्य से आँख उठाकर देखा, कुछ सन्तोष हुआ, सामने एक बड़ा वटवृक्ष खड़ा था। एकबार पुनः साहस बटोरकर
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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