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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ एक दिन जीवन्धरकुमार चोरों से गायों को छुड़ाने जंगल में गये, वहाँ अपने मित्र पद्मास्य आदि से भेंट हुई। प्रमुख मित्र पद्मास्य ने कहा “हम जब आपसे मिलने आ रहे थे तब मार्ग में ही एक आश्रम में विजयामाताजी के दर्शन हुए। माताजी ने जब हमारा परिचय पूछा तब हमने आपके मित्र होने की बात कही। आपको काष्ठांगार ने बन्दी बनाया था, यह सुनते ही वह मूर्छित हो गईं। मूर्छा दूर होने पर हमने बताया कि उसी समय आपकी यक्षेन्द्र ने रक्षा की थी और आप स्वस्थ और सुखपूर्वक हैं।" ___अपनी जन्मदात्री माता जीवित हैं, यह जानकर जीवन्धर को उनसे मिलने की अतिशय जिज्ञासा एवं चिन्ता हुई। वे शीघ्र ही आश्रम में पहुँचकर माताजी से मिले। उन्होंने काष्ठांगार से अपना राज्य प्राप्त करने सम्बन्धी उनसे सलाह की तथा माताजी को आस्वासन दिया कि “मैं अब अल्पकाल में स्वयं राजा बनूँगा, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।" तदनन्तर जीवन्धर ने माताजी को अपने मामा गोविन्दराज के यहाँ पहुँचा दिया और स्वयं ने राजपुरी नगरी की ओर प्रस्थान किया। एक दिन श्री जीवन्धरकुमार राजपुरी नगरी में भ्रमण करने गये, तब उनके पास एक गेंद आकर गिरी। यह जानने के लिए कि गेंद कहाँ से आई है उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई तो एक सुन्दर युवती दिखाई दी। वे उस युवती के रूप-सौन्दर्य पर मोहित हो गये। इतने में ही उस कन्या के पिता सागरदत्त ने आकर जीवन्धर से कहा कि मुझे एक निमित्त ज्ञानी ने बताया था- “जिस मनुष्य के आगमन से जिस दिन बहुत समय से रखे हुए तुम्हारे रत्न बिक जायेंगे, वही मनुष्य मेरी कन्या का पति होगा।" आपके आगमन से मेरे सभी रत्न बिक गये हैं। अत: आप मेरी उस कन्या को स्वीकार करो। जीवन्धर की स्वीकृति जानकर सागरदत्त ने अपनी कन्या का विवाह जीवन्धरकुमार से करा दिया। एक दिन बुद्धिषेण विदूषक ने जीवन्धर से कहा – “पुरुषों की छाया भी न सहने वाली मानिनी सुरमंजरी के साथ आप जब विवाह करेंगे, तब
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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