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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १० / ४३ लीन होने से अंतरंग ज्ञान भानु का उदय हुआ, मिथ्यात्व परिणति का नाश हो गया । शरीर, कर्म और संयोग से भिन्न एवं विकारी तथा अपूर्ण • पर्याय से पार त्रिकाल शुद्ध चैतन्यस्वरूप निजात्मा का अनुभव हुआ। अनादि से जो परिणति परपदार्थ और विकार का आश्रय करती हुई अनन्त क्लेश को पा रही थी, वह अब स्वभाव का आश्रय लेकर क्लेशरहित हुई और जिसे प्राप्त करने की भावना सिद्धकुमार वर्षों से कर रहे थे वह स्वरूपनिधि प्राप्त होने से सिद्धकुमार को भी परमानंद प्राप्त हुआ। उन्हें त्रिलोक पूज्य सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, इससे वे अपने को कृतकृत्य समझने लगे। T - संशय-विभ्रममोह त्याग प्रभात होते ही स्नानादि से निवृत होकर सिद्धकुमार जिनमन्दिर में पूजन करने गये। पश्चात् नगर के बाहर विराजमान वीतरागी मुनि श्री जिनेन्द्राचार्य के निकट गये, अपने को हुए स्वानुभव का वर्णन किया तथा हाथ जोड़कर प्रार्थना की "" हे प्रभो ! अब मेरी परिणति संसार से उदासीन हुई है, मुझे भगवती जिनदीक्षा देकर अपने चरणकमलों का आश्रय दीजिये । ” ऐसा कहकर सिद्धकुमार ने चारित्रदशा धारण करने की अपनी अन्तरभावना आचार्य देव के समक्ष व्यक्त की । सिद्धकुमार की इस उच्च भावना की आचार्यदेव ने अनुमोदना की और जिनदीक्षा धारण करने के लिये कुटुम्बीजनों की अनुमति लेने को कहा। सिद्धकुमार परम- भक्ति से नमस्कार करके अपने घर आये।
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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