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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८६ सिद्धार्थ महाराजा ने दूत की बात सुनकर प्रसन्नता व्यक्त की और उसका सम्मान किया। जब त्रिशला माता ने यह बात सुनी तब उन्हें हार्दिक प्रसन्नता हुई और कलिंग देश की अनुपम सुन्दरी राजकुमारी यशोदा से विवाह करने हेतु वीर कुँवर की सम्मति माँगी। परन्तु....वे तो वीर....वीतरागता को वर्द्धमान करने वाले महावीर...कुछ वर्षों की आयु में, जिन्हें महान कार्य करना है – ऐसे उन वैरागी महात्मा का हृदय पहले से ही संसार से विरक्त था; विषयों से परे चैतन्य के अतीन्द्रिय सुख का आस्वादन करके जो सदा मुक्ति सुन्दरी के साथ आनन्द करते हैं और अलौकिक मुक्ति सुन्दरी के प्रति जिनका चित्त आकर्षित है, उनको सांसारिक भोगों की आकांक्षा कैसे होती? जब माताजी ने यशोदा सुन्दरी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा, तब वीर कुँवर क्षण भर तो माता के समक्ष देखते रह गये। माता के हृदय को आघात न लगे, अत: गम्भीरता से मुस्कराते हुए कहा - हे माता ! आपका पुत्र-प्रेम अपार है; किन्तु अपने प्रिय पुत्र को संसार बन्धन में बाँधने का मोह न करो। आप जानती हैं कि इसी भव में मुझे अपनी मोक्षसाधना पूरी करनी है। आयु अल्प है, यहाँ विषय कषाय के पिंजरे में बन्द हो जाना मुझे योग्य नहीं है। इसलिये हे माताजी ! आप भी मोह छोड़ो और मेरे विवाह की बात न करो। 'वीर मेरा पुत्र और मैं उसकी माता' - ऐसी मोहदृष्टि से मुझे न देखो; परन्तु अल्पकाल में ही यह आत्मा मोक्ष को साधनेवाला है - ऐसी तत्त्वदृष्टि से देखो।। ___अपने लाड़ले पुत्र के विवाह की अभिलाषा किस माता को नहीं होगी ? वैरागी वीर कुँवर की बात सुनकर त्रिशला माता के हृदय को आघात तो लगा; परन्तु वे तो यथार्थ परिस्थिति को जानती थीं, महावीर की दृढ़ता से परिचित थीं; वे समझ गईं कि वीरकुँवर को विवाह के लिये समझाना कठिन है। उन्होंने विचार किया कि जो पुत्र महावीर कह रहा है वही योग्य है। मेरा पुत्र विवाह करके सांसारिक बन्धनों में बँध जाये, उसकी अपेक्षा लाखों भव्यजीवों का उद्धार करके मुक्तिसुन्दरी का वरण करे यही उचित है, उत्तम है। ऐसा समझते हुए भी पुत्र-मोहवश माता का हृदय पुकार उठा कि बेटा, तेरी बात सच है; परन्तु अभी तेरी युवावस्था है, इसलिये विवाह करके गृहस्थाश्रम चलाओ, फिर संसार छोड़कर धर्मतीर्थ चलाना। तुमसे पूर्व ऋषभादि तीर्थंकरों ने भी ऐसा ही किया है।
SR No.032258
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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