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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४६ है ? उनका स्वरूप जानोगे तभी तुम धर्मात्मा के जीवन को भलीभाँति जान सकोगे
और उसे जानने का सम्यक् फल आयेगा। मात्र औदयिक भाव को ही देखने से ज्ञानी का सच्चा स्वरूप जानने में नहीं आता....इसलिये बारम्बार कहते हैं कि
चेतनभाव से भगवान को पहिचानो, उदयभाव से नहीं। ___ उन प्रियमित्र महाराजा ने तेरासी लाख पूर्व के दीर्घकाल तक चक्रवर्ती पद पर रहकर प्रजा का पालन किया। पश्चात् एकबार दर्पण में मुख देखते समय कान के पास श्वेत केश देखकर उनका चित्त संसार से विरक्त हुआ। संसार से विरक्त वे प्रियमित्र चक्रवर्ती बारह वैराग्य भावनाएँ भाते हुए क्षेमंकर जिनेन्द्र भगवान के समवसरण में पहुंचे। सर्वज्ञता से सुशोभित वीतराग जिनेन्द्र देव के दर्शन से उनका प्रशमभाव दुगुना हो गया। उन्होंने अत्यन्त भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान के श्रीमुख से मोक्षमार्ग का श्रवण किया। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्र जो कि महा आनन्दमय मोक्ष का कारण है, तद्रूप अपना ही शुद्धस्वभाव परिणमित होता है; वे कहीं बाहर से नहीं आते और न कहीं उनमें राग है।
ऐसे वीतराग रत्नत्रय के आधाररूप शुद्ध आत्मा की अचिन्त्य अपार महिमा भगवान ने बतलायी। उसे सुनकर ज्ञान की अतिशय निर्मलतापूर्वक जिनेन्द्र भगवान के पादमूल में ही जिनदीक्षा लेकर उन्होंने चारित्रदशा के महान रत्नत्रय अंगीकार किये और चक्रवर्ती की अपार विभूति को तृणतुल्य छोड़ दिया। अधिक लेकर अल्प छोड़ दिया, उसमें क्या आश्चर्य है ! मोक्ष के सारभूत निधान लेकर संसार के तुच्छ निधान छोड़ दिये, उन्होंने तो अल्प छोड़कर अधिक ले लिया; तथापि (आश्चर्य है कि) लोग उन्हें महान त्यागी कहते हैं। अहा! सुख का सरोवर अपने में पाकर असत् ऐसे मृगजल की ओर कौन दौड़ेगा? चारित्रदशा का चैतन्य सरोवर प्राप्त करके चक्रवर्ती के विषय-भोगों को छोड़ना वह कोई बड़ी बात नहीं है। विदेहक्षेत्र में राजचक्रीपन छोड़कर जो मुनि हुए हैं और अब चौथे भव में भरतक्षेत्र में धर्मचक्री-तीर्थंकर होनेवाले हैं - ऐसे वे प्रियमित्र मुनिराज जगत में सर्वप्रिय थे और सर्वजीवों के हितकारी थे। उत्तम प्रकार से चारित्र पालन करके उन्होंने सल्लेखना पूर्वक शरीर का त्याग किया और उत्तम रत्नत्रय की आराधना करते-करते शेष रह गये किंचित् कषायकण के महान पुण्यफल का उपभोग करते हेतु सहस्रार नाम के बारहवें सूर्यप्रभ स्वर्ग में देवरूप