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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ / ३५
श्री मुनिराज उसे शुद्धात्मा की देशना दे रहे हैं - भो भव्य ! तुम एकाग्रचित्त से सुनो। यह जीव अनादि - अनन्त सदा उपयोग स्वरूप है, चेतनरूप द्रव्य से, गुण से, पर्याय से शुद्धोपयोगी जैसे अरिहन्त हैं, परमार्थत: यह आत्मा भी वैसा ही उपयोग स्वरूप है; ऐसे आत्मा को तुम अनुभव में लो....तुम्हें महा-आनन्दरूप सम्यक्त्व होगा और परमशान्ति का वेदन होगा, तुम इस भवदुःख से छूट जाओगे ।
श्री मुनिराज जो कह रहे हैं उसे 'श्रवण' करने की अपेक्षा वैसे भावों 'वेद' के प्रति अब सिंह का उपयोग विशेष कार्य कर रहा है । सम्यक्त्व के लिये आवश्यक तीन करणों की विशुद्धता उसे होने लगी है.... राग से हटकर उसका उपयोग अब अतीन्द्रिय शान्ति की ओर जा रहा है.... अहा ! ऐसा अद्भुत शान्त मेरा आत्मा ! ऐसे अन्तर वेदन से उसे अपूर्व शान्ति प्रगट होती जा रही है.... शान्ति के समुद्र में उपयोग अधिकाधिक गहराई में उतरता जा रहा है.... मुनिवर तो आश्चर्य से सिंह का हृदय परिवर्तन देखते ही रह गये । इतने में, सिंह की परिणति ने चैतन्यरस की प्रबलता से कोई ऐसी छलाँग लगाई कि कषायों से पार होकर चैतन्य के अतीन्द्रिय भाव में जा पहुँचा और शान्तरस के समुद्र में निमग्न हो गया.
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उसे निज परमात्मा का सम्यक् दर्शन प्रगट हुआ । अहा ! उस क्षण के आनन्द
का क्या कहना ? सम्यक्त्वरूपी सिंह ने मिथ्यात्वरूपी उन्मत्त हाथी को भगा दिया
और मोक्षसाधना का शौर्य
प्रगट किया। उसकी अपूर्व
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शान्तिमय चेष्टा से
मुनिराज उसकी स्थिति समझ गये । चैतन्य की
ऐसी अपूर्व शान्ति देखकर
क्षणभर वे भी निर्विकल्प रस में निमग्न हो गये ।
वाह ! इधर मुनिवर
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