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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/१७
भी उस जीव को कहीं शान्ति नहीं है, कहीं उसके आत्मा को आराम नहीं है । अहा ! जब जीव जैनमार्ग को प्राप्त कर ले, तभी उसे सुख-शान्ति मिलती है; इसलिये हे जीवो ! तुम जैनमार्ग पाकर महान आदरपूर्वक उसका सेवन करो। पूर्वभव : अग्निमित्र ब्राह्मण और चौथे स्वर्ग में देव
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तीसरे स्वर्ग से निकलकर 'भील' और 'भगवान' का वह जीव भरतक्षेत्र की मन्दिर नगरी में एक अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण-पुत्र हुआ । उसके काले केश मानों अन्तर की मिथ्यात्वरूपी कालिमा सूचित करते हों - इसप्रकार फर-फर होते थे । युवावस्था में गृहवास छोड़कर वह पुनः संन्यासी होकर तीव्र तप करते हुए मिथ्यामार्ग का उपदेश देने लगा ।
दीर्घकाल तक कुमार्ग का प्रवर्तन करके अन्त में असमाधिमरणपूर्वक मरकर वह चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ। असंख्य वर्षों तक स्वर्गलोक की विभूतियों को पुण्यफल भोगा, परन्तु अन्त में जिसप्रकार सूखा पत्ता डाल से खिर पड़ता है, तदनुसार पुण्य सूख जाने पर वह स्वर्गलोक से खिर पड़ा। पूर्वभव : भारद्वाज ब्राह्मण और पुनः चौथे स्वर्ग में देव
चौथे स्वर्ग से च्युत होकर वह जीव स्वस्तिमती नगरी में भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ और पुनः गतजन्म की भाँति संन्यासी होकर कुतप में जीवन गँवाकर चौथे स्वर्ग में गया। स्वर्गलोक की अनेक ऋद्धियाँ तथा देवांगनाओं आदि के वैभव में आसक्तिपूर्वक असंख्यात वर्ष का जीवन बिता दिया और जब आयु पूर्ण होने को आयी तब उसके कल्पवृक्ष काँपने लगे, उसकी मन्दार मालाएँ मुरझाने लगीं, उसकी दृष्टि भ्रमित होने लगी, शरीर की कान्ति निस्तेज होने लगी। ऐसे चिन्हों से उसे विचार आने लगा कि अब स्वर्ग की यह सब विभूति छोड़कर मुझे यहाँ से जाना पड़ेगा। देवियों के विरह से वह विलाप करने लगा ? अरे रे ! देखो तो सही, जिसने बाह्य वस्तुओं में सुख माना वह उनके वियोग में कैसा विह्वल होता है । अरे मूर्ख ! विचार तो कर कि असंख्यात वर्षों तक जिन बाह्य विषयों के बीच रहकर उनका उपभोग करने पर भी तुझे शान्ति या तृप्ति नहीं हुई उनमें सुख कैसा ? सुख हो तो मिले न ?... आकुलित होकर मिथ्या प्रयत्न किसलिये करता है ? अनन्तकाल तक भोगने पर भी विषयों में से कदापि सुख प्राप्त नहीं हो सकता ।