________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१४ जिनदीक्षा ले ली। भगवान ऋषभदेव के प्रति परमस्नेह के कारण चार हजार राजाओं ने भी उनका अनुसरण किया तथा दादाजी के साथ उनका पौत्र मरीचिकुमार भी अविचारी रूप से दिगम्बर साधु बन गया। अन्तर में चैतन्यतत्त्व की प्रतीति तो थी नहीं; भगवान ऋषभदेव मुनि बनकर किसका ध्यान कर रहे हैं, वह भी नहीं जानता था। ऋषभ मुनिराज तो छह मास तक चैतन्य के ध्यान में लीन होकर ज्यों के त्यों खड़े रहे; परन्तु मरीचि आदि द्रव्यलिंगी साधु दीर्घकाल तक भूख-प्यास सहन नहीं कर सके, इसलिये मुनिमार्ग से भ्रष्ट होकर ज्यों-त्यों वर्तने लगे।
अहा ! जैनधर्म का मुनिमार्ग तो मोक्ष का मार्ग है। कायर जीव उसका पालन कैसे कर सकते थे ? भगवान ऋषभदेव को मुनि होने के एक हजार वर्ष पश्चात् केवलज्ञान हुआ। जिस दिन भगवान ऋषभदेव मुनि को केवलज्ञान हुआ, उसी दिन महाराजा भरत के यहाँ चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। पिता धर्मचक्री बने और पुत्र राजचक्री हुआ। भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती एक ही दिन प्रगट हुए। विवेकी भरत राजा अपने चक्र को एक ओर रखकर प्रथम धर्मचक्री सर्वज्ञपिता का केवलज्ञान-महोत्सव मनाने हेतु समवसरण में आये। वहाँ धर्मपिता के दिव्य आत्मवैभव को देखकर तथा चैतन्यतत्त्व की अलौकिकता सुनकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने भगवान से पूछा – हे देव ! हमारे कुल में आप तीर्थंकर हुए; तो आप जैसा तीर्थंकर होनेवाला दूसरा कोई उत्तम पुरुष इस समय मेरे परिवार में है ? ___ तब प्रभु की दिव्यध्वनि में उत्तर मिला कि हे भरत ! तुम और तुम्हारे सब पुत्र मोक्षगामी हैं; ...और तुम्हारा यह पुत्र मरीचिकुमार तो भरतक्षेत्र की इस चौबीसी में अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) होगा।
यह सुनकर भरत को अति हर्ष हुआ कि अहा, मेरे पिता आदि-तीर्थंकर और मेरा पुत्र अन्तिम तीर्थंकर तथा मैं भी इसी भव में मोक्षगामी – इसप्रकार भरतराजा की प्रसन्नता से चारों ओर आनन्दमय उत्सव का वातावरण छा गया। प्रभु की वाणी में अन्य विकल्प को अवकाश नहीं है। अरे! प्रभु की वाणी में अपने तीर्थंकर होने की बात सुनकर भी उस मरीचि ने सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया और भव के कारणरूप मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा; वह कुमार्ग में ही लगा रहा।....
वाह री होनहार ! मुनिवेश छोड़कर भ्रष्ट हुए मरीचि ने तापस का वेश धारण