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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१४३
जो जानता महावीर को.... इस एक ही चौबीसी में महावीर के एक ही जीव ने अपने विविध परिणामों वश कैसी-कैसी विशिष्ट पर्यायें धारण की, उनका ज्ञान अद्भुत वैराग्य जागृत करता है और बंध-मोक्ष के भावों का भेदज्ञान कराता है। ___ अनन्त काल की बात तो दूर रही, इस वर्तमान मात्र एक ही चौबीसी में (चतुर्थकाल में) ही तीर्थंकर के उसी जीव ने स्वर्ग, नरक, तिर्यंच तथा मनुष्य चारों गति के भवसहित एकेन्द्रिय-निगोद के भव भी असंख्य बार किये और अन्त में उस जीव ने मोक्षपर्याय प्राप्त की।
आदि तीर्थंकर का पौत्र होकर फिर स्वयं भी अन्तिम तीर्थंकर हुआ। * प्रथम चक्रवर्ती का पुत्र होकर फिर स्वयं भी चक्रवर्ती हुआ। * मुनि होकर स्वर्ग में गया और अर्धचक्री होकर नरक में भी गया। ॐ सिंह होकर माँस भक्षण भी किया और तीर्थंकर होकर परम अहिंसाधर्म ___ का उपदेश भी दिया।
नरक-निगोद के दुःख भी भोगे और मोक्षसुख भी प्राप्त किया। तीव्र मिथ्यात्वादि भावों का सेवन करके मिथ्यामार्गों का उपदेश भी दिया
और क्षायिक सम्यकत्वादि प्राप्त करके रत्नत्रय धर्म के उपदेश द्वारा उन मिथ्यामार्गों का खण्डन भी स्वयं किया।
हे देव ! उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप अनेकान्त तत्त्व बिना ऐसा किस प्रकार हो सकता है ?
हे वीरनाथ ! आपका जीवन तथा आपका इष्टोपदेश ‘अनेकान्तमय' है; उसे जानकर और उसी से अपने आत्मा का भी सत्य स्वरूप समझकर हम आपके मंगल मार्ग से मोक्षपुरी में आ रहे हैं....उस मोक्ष के मंगल उत्सव के निमित्त ही आपकी यह मंगल कथा लिखी है....यह भव्यजीवों का कल्याण करे! .....