________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-8/१२४ जा रहे जगत को प्रभु ने बतला दिया कि आत्मा इन्द्रिय विषयों के बिना ही स्वाधीन रूप से सुखी है; सुख वह आत्मा का स्वभाव है, इन्द्रियों का नहीं।'
शुद्धोपयोग के प्रभाव से आत्मा स्वयं परम सुखरूप परिणमता है।
इन्द्रियातीत तथा लोकोत्तम ऐसे वे वीर भगवान केवलज्ञान होते ही पृथ्वी से ५००० धनुष ऊपर अन्तरिक्ष में विराजमान हुए। अहा ! पृथ्वी का अवलम्बन उनको नहीं रहा और अब वे फिर कभी पृथ्वी पर नहीं उतरेंगे। उनका शरीर छायारहित परम औदारिक हो गया; सब को देखनेवाले प्रभु स्वयं भी सर्व दिशाओं से दिखने लगे। प्रभु के केवलज्ञान का महोत्सव करने तथा अरिहन्त पद की पूजा करने स्वर्ग से इन्द्रादि देव पृथ्वी पर आ पहुँचे । इन्द्र ने स्तुति करते हुए कहा - हे देव ! आप वीतरागता एवं सर्वज्ञता द्वारा जगत में सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता को प्राप्त हुए हैं; आप परम इष्ट हैं। ____ सर्वज्ञ परमात्मा का साक्षात्कार करके हजारों लाखों जीव पावन हुए। कुबेर ने अत्यन्त भक्तिसहित संसार की सर्वोत्कृष्ट विभूति द्वारा समवसरणरूप जिनेन्द्रसभा की रचना की। ऐसी रचना वह इन्द्र की आज्ञा से करता होगा या प्रभु की तीर्थंकर प्रकृति से प्रेरित होकर ?....यह तो वही जाने ! परन्तु यह रचना पूर्ण करते ही आश्चर्यचकित होकर उसने कहा - अहो देव ! आपके सान्निध्य के कारण आपका समवसरण जैसा सुशोभित होता है वैसा हमारा स्वर्ग भी शोभा नहीं देता ! (कैसे शोभा देगा?....अरे कुबेर ! यहाँ तो मोक्ष प्राप्त होता है, तुम्हारे स्वर्ग में कहाँ मोक्ष मिलता है ? हे कुबेर ! तुम स्वर्गलोक की उत्कृष्ट शोभा यहाँ ले आये; परन्तु इन सर्वज्ञदेव की चैतन्य विभूति के समक्ष तुम्हारी विभूति का क्या मूल्य ?) ___ सम्पूर्ण नीलमणि की शिला पर पृथ्वी के आधार बिना प्रभु के समवसरण की दिव्यरचना हुई; परन्तु उस दिव्य शोभा में मुमुक्षु का चित्त नहीं लगता था; क्योंकि उसका चित्त तो सर्वज्ञ प्रभु के चरणों में ही लगा है। उसे तो देखना है साक्षात् परमात्मा को!....चेतनवन्त वीतराग देव को प्रत्यक्ष देखकर उनकी उपासना करना है....और रागरहित आत्मा का स्वाद लेना है। प्रभु की शोभा कहीं बाह्य ठाठ-बाट में नहीं है, उनकी शोभा तो सर्वज्ञता एवं वीतरागता से है; इसलिये उसी में मुमुक्षुका चित्त स्थिर