________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१२२. सम्मेदशिखर तीर्थ के निकट १५-२० किलोमीटर दूर जांभिक ग्राम के समीप ऋजुवालिका नदी बहती है; जैसा सुन्दर नाम वैसी ही सुन्दर नदी है। महावीर प्रभु सम्मेदशिखर से विहार करते हुए उस नदी के तट पर आये और एक स्फटिक समान स्वच्छ सुन्दर शिला पर ध्यानस्थ हुए। वैशाख मास की तीव्र तपन में भी प्रभु तो मानों चैतन्यशान्ति की हिमशीतल गुफा में बैठे-बैठे अपूर्ववीतरागी शीतलता का वेदन कर रहे हो....और मानों प्रकृति भी अनुकूल होकर प्रभु की सेवा कर रही हो, तद्नुसार एक घटादार शाल्मली वृक्ष प्रभु को शीतल छाया दे रहा है। अहा! चैतन्य के साधक को सारा जगत अनुकूल ही वर्तता है।
प्रभु ध्यान में खड़े हैं....अहा ! ऐसे वीतरागी महात्मा मेरे तट पर पधारे ! इसप्रकार हर्षतरंगों से उछलती कल-कल करती नदी मानों आज विशेष हर्षित हो रही हो, तद्नुसार जांभिक ग्राम के निकट वह दृश्य देखने के लिये क्षणभर थम जाती थी। अहा! मेरे किनारे आज कोई अद्भुत योगिराज आकर ध्यान लगा रहे हैं। प्रात:काल से ध्यानमग्न योगिराज....न तो कुछ बोलते हैं, न खाते हैं और न पानी पीते हैं ! यह नदी का किनारा, यह ग्रीष्म का ताप और यह शीतल मिष्ट जल....जो भी यात्री यहाँ आता है वह शीतल जल पिये बिना नहीं रहता; परन्तु यह योगिराज तो ग्रीष्म के प्रचण्ड ताप में खड़े होने पर भी पानी का नाम तक नहीं लेते....मानों नदी को आश्चर्य हो रहा है, वह सोच रही है, क्या इन्हें गर्मी नहीं लगती होगी ? क्या इन्हें तृषा नहीं सताती ?....मैं उछलकर इनके मुखद्वार से हृदय में प्रविष्ट हो जाऊँ और अपनी शीतलता से इनकी तृषा मिटाकर सेवा करूँ !....किन्तु नहीं, वे यहाँ पानी के लिये नहीं आये....आँख