________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/११५ भा रही थी भावना, आहार देने के लिये....।
बेड़ियाँ तब खुल गईं, प्रभु वीर के शुभ दर्श से॥ सारा वातावरण एकदम बदल गया । बन्धन मुक्त चन्दना का लक्ष्य तो प्रभु की ओर था। बन्धन था और टूट गया, उसका भी लक्ष्य उसे नहीं है....जिसप्रकार स्वानुभूति के काल में मुमुक्षु साधक को बन्ध-मोक्ष का लक्ष्य नहीं रहता, तथापि बन्धन टूट जाते हैं; आत्मदर्शन में लीन साधक के मोह बन्धन अचानक ही खुल जाते हैं.... उसीप्रकार प्रभु-दर्शन में लीन चन्दना की बेड़ी का बन्धन टूट गया....आनन्दपूर्वक वह द्वार पर आयी; प्रभु की परमभक्ति सहित वन्दना करके पड़गाहन किया - अहो प्रभो ! पधारो.... पधारो.... पधारो....! - वीर प्रभु की मधुर दृष्टि चन्दना पर पड़ी....तो वह कृतार्थ हो गई, लोग मुझे नहीं पहिचानते, किन्तु मेरे प्रभु महावीर तो जानते हैं ?' प्रभु के दर्शनों से वह जीवन के सर्व दुःख भूल गई....भक्तिपूर्वक वीर मुनिराज को आहार हेतु आमन्त्रित किया....क्षणभर के लिये प्रभु वहाँ ठहरे....और देखा....तो दासी के रूप में तीन दिन की उपवासी राजकुमारी चन्दना आहारदान देने हेतु खड़ी है....दूसरे भी अनेक अभिग्रह पूरे हो गये....और १७५ दिन के उपवासी तीर्थंकर मुनिराज ने चन्दना के हाथ से पारणा किया।
ज्यों ही चन्दना ने प्रभु के हाथ में उड़द का प्रथम ग्रास रखा कि दाता और पात्र दोनों के दैवी पुण्यप्रभाव से उसका उत्तम खीररूप परिणमन हो गया ! उत्तम खीर से विधिपूर्वक प्रभु का पारणा होने से चारों ओर आनन्द मंगल छा गया; देवगण आकाश में जय-जयकार करने लगे और रत्नवृष्टि होने लगी; देवदुंदुभी बज उठी....समस्त कौशाम्बी नगरी में हर्ष एवं आश्चर्य फैल गया कि - अरे, यह काहे का उत्सव है ?....और जब उन्होंने जाना कि आज वीर मुनिराज का पारणा हो गया है और उसी के हर्षोपलक्ष्य में देवगण यह महोत्सव कर रहे हैं....तब नगरजनों के आनन्द का पार नहीं रहा। _ ___ मुनिराज महावीर प्रतिदिन नगरी में पधारते और बिना आहार किये लौट जाते....उन प्रभु ने आज आहार ग्रहण किया....नगरी में यह समाचार फैलते