________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१०४ हुए मुनि भगवन्तों पर उपद्रव करने या उन्हें आराधना से विचलित करने का सामर्थ्य विश्व में किसी का नहीं है। ... ----
अरे पामर यक्ष ! अरे दुष्ट रुद्र !! तू इन वीतरागी मुनि पर क्या उपसर्ग करेगा ? तेरे अपने ही ऊपर भयंकर क्रोध का उपसर्ग हो रहा है और उससे तू महा दुःखी है। भवदुःख से छूटने के लिये तू प्रभु की शरण में आ....और अपने आत्मा पर होते हुए भयंकर उपद्रव को शान्त कर ! ___ दुष्ट यक्ष अनेक उपसर्गों की चेष्टाएँ कर-करके थक गया, परन्तु महावीर मुनिराज अपनी वीरता से विचलित नहीं हए। अरे, शान्ति के वेदन में थकावट कैसी ? थकावट तो कषाय में है। 'शान्ति' कभी परास्त नहीं होगी, क्रोध' क्षण में परास्त हो जायेगा। अन्त में वह भव-रुद्र मोक्ष के साधक पर उपसर्ग कर-करके थक गया....हार गया। 'वि-भव' ऐसे भगवान के समक्ष भव' कैसे टिक पाता। भवरहित ऐसे मोक्ष के साधक महावीर के सामने भव' हार गया। शान्तभाव के समक्ष रुद्रभाव नहीं टिक सका। अन्त में थककर उसने अपनी विचारधारा बदली कि अरे, इतना सब करने पर भी यह वीर मुनिराज तो ध्यान से किंचित् चलायमान नहीं हुए और मेरे प्रति किंचित् भी क्रोध उत्पन्न नहीं हुआ... मानों कुछ भी नहीं हुआ हो, इसप्रकार वे अपनी शान्ति में ही लीन हैं। वाह प्रभो ! धन्य है तुम्हारी वीरता ! सचमुच तुम मात्र 'वीर' नहीं, किन्तु अतिवीर हो। इसप्रकार ‘अतिवीर' सम्बोधनपूर्वक वह यक्ष प्रभुचरणों में झुककर स्तुति करने लगा -
'धन्य धन्य अतिवीर ! मोक्ष के सच्चे साधक !'
'महावीर पर आया हुआ उपसर्ग दूर हो गया ?' नहीं, उन पर तो उपसर्ग था ही नहीं, उपसर्ग तो यक्ष पर था, दूर हो गया; महान क्रोध और पाप के उपसर्ग से छूटकर वह यक्ष शान्ति को प्राप्त हुआ। अहा, शान्ति के अमोघ शस्त्र के सामने भगवान के विरोधी भी स्वयं वश में होकर झुक जाते थे। वास्तव में 'शान्ति' ही मुमुक्षु की विजय के लिये परम अहिंसक और सर्वोत्कृष्ट शस्त्र है, जो कदापि निष्फल नहीं जाता।
यक्षदेव अथवा भव-रुद द्वारा अतिवीर' ऐसे मंगल नामकरण द्वारा प्रभु का सन्मान करने से परमेष्ठी पद में विराजमान प्रभु पाँच मंगल नामधारी हुए – 'वीर' नाम जन्माभिषेक के समय इन्द्र ने दिया, 'वर्द्धमान' नाम माता-पिता ने दिया;