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_ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१०२ . वहाँ शीत-उष्णता के उपसर्ग कैसे ? अहा ! ऐसे अतीन्द्रिय चैतन्य तत्त्व को जाननेवाली माता क्या आत्मसाधना में आगे बढ़ते हुए पुत्र को देखकर मूर्च्छित होगी ?....नहीं, कदापि नहीं। अपने लाड़ले पुत्र को मोहपाश तोड़कर मुनिदशा में मग्न देखकर वे आनन्दित हुईं....और जब उसे केवलज्ञानी-अरिहन्तपरमात्मारूप में देखेंगी, तब तो अति आनन्दित होंगीं। धन्य माता! तुम तो परमात्मा की माता हो....!' ___ बिना वर्द्धमान के वैशाली के राजप्रासाद सूने हो गये थे। बाह्य वैभव ज्यों के त्यों होने पर भी सुख रहित बिल्कुल निस्तेज लगते थे। - मानों वे पुद्गल-पिण्ड जगत से कह रहे थे कि 'देखो, हममें सुख नहीं है; इसीलिये तो वीर कुमार हमें छोड़कर तपोवन में चले गये और चैतन्य में लीन हो गये। परम वैराग्य जिसका प्रवेशद्वार है ऐसा चैतन्य का आनन्द-उद्यान सज्जन-सन्तों को अत्यन्त प्रिय है; धर्मात्मा उसमें क्रीड़ा करते हैं, पंचपरमेष्ठी का वहाँ निवास है। शुद्धोपयोग का अमोघ चक्र लेकर वीरनाथ ने ज्यों ही ऐसे तपोवन में प्रवेश किया, त्यों ही मोह लुटेरा भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ। निजवैभव की सेना सहित वीर योद्धा के आगमन से तपोवन सुशोभित हो उठा; सर्व गुणरूपी वृक्ष अपनेअपने मिष्टफलों से भर गये; अत्यन्त सुन्दर एवं परम शान्त उस चैतन्य-नन्दन वन के एकान्त स्थान (एकत्व चैतन्यधाम) में प्रभु महा-आनन्द अनुभवते थे। - ऐसा अद्भुत था वीर प्रभु का वनवास !
मुनिदशा में आत्मसाधना मुनि होकर आत्मा की निर्विकल्प आनन्द दशा में झूलते-झूलते भगवान ने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहकर आत्मसाधना की। मात्र अपने एक स्वद्रव्य में ही उग्र तथा अन्य समस्त द्रव्यों से अत्यन्त निरपेक्ष, - ऐसी आत्मसाधना करतेकरते महावीर प्रभु मोक्षमार्ग में विचर रहे हैं, और बिना बोले भी वीतराग मोक्षमार्ग का अर्थबोध करा रहे हैं। दीक्षा के पश्चात् दो दिन के उपवास हुए और तीसरे दिन कुलपाक नगरी के राजा श्रेयांस ने भक्ति पूर्वक आहारदान देकर वीरनाथ मुनिराज को पारणा कराया। आहारदान के प्रभाव से वहाँ देवों ने रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्रगट किये।