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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/8E तथा मनुष्यों में भी, विद्याधर-मनुष्यों में तीर्थंकर उत्पन्न नहीं होते; भूमिगोचरी मनुष्यों में ही तीर्थंकर पैदा होते हैं, इसलिये प्रभु की पालकी उठाने का प्रथम अधिकार भूमिगोचरी राजाओं का ही है।
इसप्रकार पहले भूमिगोचरी राजा पालकी उठाकर सात डग भूमि पर चले, फिर सात डग तक विद्याधर राजा चले और तत्पश्चात् देव पालकी उठाकर आकाशमार्ग से चलने लगे। हजारों-लाखों नर-नारी वैराग्य भावना भाते हुए प्रभु के साथ वन की ओर चले।
गंगा नदी के पश्चिमी तट पर (पटना शहर के सामने वाले किनारे) वैशालीकुण्डग्राम के नागखण्ड' नामक उपवन में शिविका से उतरकर प्रभु महावीर एक स्फटिक शिला पर विराजे। उत्तरमुख विराजमान वर्धमान कुमार ने नमः सिद्धेभ्यः' कहकर प्रथम सिद्धों को नमस्कार किया। इसप्रकार देहातीत सिद्धों को निकट लाकर प्रभु ने देह के आभूषण उतारे, वस्त्र भी एक-एक करके उतार दिये और सर्वथा दिगम्बर दशा धारण की। वर्द्धमान कुमार जितने दैवी वस्त्रों में शोभते थे उसकी अपेक्षा दिगम्बर दशा में मुनिराज महावीर अधिक सुशोभित होने लगे। रत्नत्रय द्वारा प्रभु सुशोभित हो उठे और प्रभु के आश्रय से रत्नत्रय शोभायमान हो गया।
अरे, किन्तु प्रभु और रत्नत्रय भिन्न कहाँ थे। जो कि एक-दूसरे से सुशोभित होते ? प्रभु स्वयं रत्नत्रयरूप परिणमित थे। भेदवासना का विलय हो....अभेद आत्मानुभूति में लीनता हो।
अभेद आत्मानुभूति में लीन उन श्रमण महावीर को वन्दन हो !
वैशाली के नगरजन अपने प्रिय राजपुत्र को ऐसी वीतरागदशा में देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुए....वे न तो हर्ष कर सके और न शोक ! बस, मानों हर्षशोकरहित ऐसी वीतरागता ही करने योग्य है । ऐसा उस कल्याणक प्रसंग का वातावरण था। हर्ष और शोक के बिना भी मोक्ष का महोत्सव मनाया जा सकता है-ऐसा प्रभु का यह दीक्षा कल्याणक महोत्सव घोषित करता था। उन चैतन्यवीर की वीतरागदशा देखकर धर्मीजनों के अन्तर में चारित्र की लहरें उछलती थीं।
मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के संध्याकाल स्वयं दीक्षित होकर महावीर मुनिराज तप धारण करके अप्रमत्तभाव से चैतन्यध्यान में लीन हो गये। अहा ! दो रत्न से