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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ३/८०
कमान हो, परन्तु जो लक्ष्य वेधक बाण अथवा जीव को लक्ष्य में लेनेवाला सम्यक्त्व न हो तो वह मोह को नहीं वेध सकता और संसार से नहीं छूट सकता। इसलिए हे जीव ! तुम सम्यक्त्व रूपी तीक्ष्ण तीर को प्राप्त कर अब मोह को सर्वथा वेध डालो, जिससे संसार की जेल से छुटकारा हो जाये और मोक्षसुख प्राप्त हो जाये ।
(१२) धर्म भावना - सम्यग्दर्शनादि रूप जो धर्म है, उससे इस जीव को सुख की प्राप्ति होती है। धर्म तो आत्मा के उस भाव का नाम है, जो जीव को दुख से छुड़ाकर सुखरूप शिवधाम में स्थापित करे; इसलिए हे आत्मा ! तू भावमोह से उत्पन्न हुए विकल्पों को छोड़कर शुद्ध चैतन्य रूप अपने आत्मा का दर्शन करके उसमें लीन हो जा। यही धर्म है और यही तुझे सुख रूप है। इसके अलावा संसार में जो विविध पाखण्डरूप धर्म दिख रहा है, वह वास्तव में धर्म नहीं है। तू यह बात बराबर समझ ले और निश्चय कर ले कि आत्मा का शुद्धोपयोग ही धर्म है। ऐसे धर्म को धारण करने से ही अचल सुख का अनुभव होता है।
- इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षा भाकर समस्त सांसरिक भावों से विरक्त होकर वे पाण्डव मुनिवर चैतन्य - अनुभव में लीन हुए, युधिष्ठिर - भीम - अर्जुन ये तीन मुनिवर शुद्धोपयोग की लीनता के द्वारा क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हो गये, घाति कर्मों को घात कर, अंत:कृत केवली हुए और सिद्धालय में जाकर विराजमान हुए। अभी भी वे शत्रुंजय के ऊपर सिद्धालय में विराजमान हैं। उन्हें नमस्कार हो । दूसरे भाई एकावतारी होकर "सर्वार्थसिद्धि" के देव बने ।
घोर उपसर्ग के समय शत्रुंजय पर्वत पर यह वैराग्य भावना पाण्डवों ने भायी थी - यह हम सभी को भी भानी चाहिये, क्योंकि वैराग्यभावना रूपी माता और भेदविज्ञान रूपी पिता ये ही सिद्धि के जनक हैं। घोर उपसर्ग में भी वैराग्यभावना ही शांति का सच्चा उपाय है
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सुख की सहेली है अकेली उदासीनता.... । अध्यात्म की जननी अकेली उदासीनता....