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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४४ करो...बस, अभी मुझे निर्ग्रन्थ मुनिदीक्षा प्रदान करो....और मेरा कल्याण करो।"
तब श्रीमुनिराज ने कहा – “हे बन्धु ! तेरा भाव उत्तम है....परन्तु उसके पहले इस पद्ममणि को ले जाकर राजा को वापस करके आओ।"
“प्रभु ! इस पद्ममणि को छूने में भी अब मेरा हाथ काँपता है।"
“वत्स ! ऐसा समझ कि इस मणि के निमित्त से ही आज तेरे भावों में यह महान परिवर्तन हुआ है।"
अंगारक ने काँपते हाथों से मणि उठाया....और मुनिराज के चरणों में नमस्कार करके, राजदरबार की तरफ चला गया।
“लीजिये महाराज ! आपका यह पद्मरागमणि !!"
अंगारक ने काँपते हाथों से मणि महाराज को सौंप दिया। मणि को जैसा का तैसा वापिस पाकर महाराजा ने विस्मय से पूछा –
“क्यों कलाकार ! इस मणि को वापिस क्यों कर रहे हो ?"
"राजन् ! इस मणि को आभूषण में जड़ने का काम मुझसे नहीं हो सकता।"
"अरे ! क्या कहते हो अंगारक ! तुम्हारे जैसा कुशल कलाकार, यदि यह काम नहीं कर सकता है, तो अन्य कौन कर सकेगा ?".
“राजन् ! ऐसे मणि-रत्नों को जड़-जड़कर अनेक आभूषणों को तो मैंने शोभा दिलाई....और इसी में सारी जिंदगी समाप्त कर दी....परन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपी रत्नों से मैंने अपनी आत्मा को आज तक आभूषित नहीं किया....महाराज ! अब तो जीवन में इन रत्नों को जड़कर उससे आत्मा की शोभा बढ़ाना है।"
“कलाकार को अचानक यह क्या हो गया ?" - यह जब राजा को समझ में नहीं आया....तब राजा ने अंगारक से पूछा -