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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/२९
राजकुमार की अकालमृत्यु से राजा का हृदय अत्यन्त शोकमग्न था, वे प्रयत्न करने पर भी अपने दुःख को नहीं भुला पा रहे थे। ब्रह्मगुलाल के इस कृत्य से राजा का हृदय एक भयंकर विद्वेष से भर गया और वे किसी भी प्रकार उससे बदला लेना चाहते थे। बदला लेने के लिए उनका हृदय उत्तेजित हो रहा था और वह अवसर की राह देखने लगे, तभी एकाएक उनके मन में एक विचार आया।
एक दिन राजा ने ब्रह्मगुलाल को अपने पास बुलाकर कहा - - “कलाविद् ! सिंह का स्वाँग तो तुमने बहुत सफलतापूर्वक किया....तुम्हारे रौद्र रूप का दर्शन तो हो चुका। अब मैं तुम्हारे शांत रूप का दर्शन करना चाहता हूँ....तुम दिगम्बर साधु का स्वाँग धारण करके मुझे वैराग्य का उपदेश दो....जिससे पुत्र-शोक से संतापित मेरे हृदय में शांति हो।"
महाराज की यह आज्ञा रहस्यपूर्ण थी। उसे सुनकर ब्रह्मगुलाल विचार में पड़ गया....परन्तु दूसरे ही क्षण निर्णय करके उसने कहा -
“महाराज ! आपकी आज्ञा मान्य है, परन्तु आपको थोड़ा समय देना होगा।" .. अपने मन की इच्छा पूरी होती देख राजा प्रसन्न हुआ और उसने कहा – “ठीक है, जितना समय तुम्हें चाहिये उतना ले सकते हो; परन्तु साधु का अच्छे से अच्छा ऊँचे से ऊँचा उपदेश देकर तुम्हें मेरे शोक-संतप्त हृदय को शांत करना होगा।"
'अवश्य' – ऐसा कहकर ब्रह्मगुलाल अपने घर चला गया।
महाराज की आज्ञानुसार साधुपने का स्वाँग धारण करने के लिए ब्रह्मगुलाल ने निश्चय कर लिया था, परन्तु कार्य कठिन था। इसमें पूरे जीवन की बाजी लगानी थी, क्योंकि वह जानता था कि जैन साधुओं का