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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/२४ तुम उसकी अनुचित प्रशंसा करते हो, उसकी कला साधारण श्रेणी की है, उसमें भाव परिवर्तन की स्वाभाविक शक्ति नहीं है, जो कला के विद्वानों को संतुष्ट कर सके।
राजकुमार उसकी कला को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता था, उसे उसकी कला में एक विशेष आकर्षण दिखाई देता था, परन्तु उसके गुणद्रोही दुर्जन मित्रों को एक जैन कलाकार की प्रशंसा असहनीय थी, अत: वे उससे बहुत द्वेष रखते थे।
एक दिन की बात है जब राजकुमार का एक सगा संबंधी आया, राजकुमार ने मुक्तकंठ से कलाविद् ब्रह्मगुलाल के भाव परिवर्तन की प्रशंसा की, तब उसकी प्रशंसा सुनकर राजकुमार के अन्य मित्र उत्तेजित हो गये और एक मित्र ने कहा -
"इसप्रकार का स्वाँग रच लेना यह तो एक साधारण नर का कार्य है। हाँ, यदि ब्रह्मगुलाल सचमुच में कलाकार है तो हम उसकी कला की परीक्षा की माँग करते हैं, जहाँ वह अपनी उच्च-कोटि की कला का परिचय दे।"
___ राजकुमार को तो ब्रह्मगुलाल की स्वाभाविक कला प्रदर्शन की शक्ति पर पूरा विश्वास था, उसने तुरन्त कहा -
“मित्रो, तुम खुशी से उसकी परीक्षा कर सकते हो। तुम जो भी स्वाँग उसे करने को कहोगे, वह तैयार है।"
मित्रों ने कहा -“आज तो हम उसको सिंह के रूप में ही देखना चाहते हैं।"
“आप उसे जिस रूप में देखना चाहते हो, उस रूप में देख सकते हो।" - दृढ़तापूर्वक राजकुमार ने स्वीकार किया।
दूसरे मित्र ने कहा- "मात्र भेष धारण कर लेना तो साधारण बात है, परन्तु उसमें सचमुच सिंह के समान पराक्रम और तेज होना चाहिये।"