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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/१७ गया। अरे रे ! मेंढ़क के ऊपर हाथी का पाँव ! फिर वह कहाँ से बचे ?
मेंढ़क तो मर गया
मेंढ़क-मेंढ़क दौड़ा जाये । वीर प्रभु की पूजा की जाये। .
रास्ते में वह मर . जाये । मर कर वह देव जाये।
मेंढ़क तो हाथी के पैर के नीचे दब गया और मर गया....परन्तु मरते-मरते भी भगवान की पूजा करने की भावना उसने छोड़ी नहीं, इसलिए इस भावना पूर्वक मरकर वह देव हुआ।
इधर राजा श्रेणिक वैभार-पर्वत पर महावीर प्रभु के समवसरण पहुँचे और भगवान की शोभा देखकर उन्हें अपार आनंद हुआ। अहा, भगवान की शोभा (वैभव) की क्या बात !! भगवान की सभा में गौतम गणधर और हजारों मुनि बैठे हैं, चंदना सती आदि छत्तीस हजार आर्यिकायें हैं, लाखों श्रावक श्राविकायें हैं और असंख्य देव-देवी हैं, सिंह और खरगोश, हाथी और हिरण, बंदर और बाघ, सर्प और मोर - ये सभी बैठे हैं और भगवान की वाणी सुन रहे हैं।
श्रेणिक राजा ने बहुत भक्ति से भगवान के दर्शन किए और क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया तथा तीर्थंकर नामकर्म बाँधा।
इसी समय आकाश में से एक देव उतरा और बहुत भक्ति भाव से भगवान के दर्शन करने लगा। उसके मुकुट में मेंढ़क का निशान था। उसे देखकर श्रेणिक राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने भगवान से पूछा – “हे नाथ ! यह देव कौन है ?"