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कर्ता: श्री पूज्य माणेकमुनिजी महाराज 2 विमलनाथ-मुख-चंदलो रे, सोहे अभिनव-चंद-मनडु मोहेजी। मोहे ते सुर-नर देखीने रे, 'सारे मोह्या ईन्द्र-नरिंद-दुखडुं खोहेजी०...।।१।। नहीं कलंक नही खीणता रे, नहीं राहु दुःख-दंद-मनडु०। सकल कंलाए शोभता रे, नहि वासर हुंती मंद-दुःख०।।२।। विमल-प्रभाए विश्वनो रे, करतो 'तिमिर- निकंद-मनडु०। भविजन-नयन-चकोर ने रे, देतो रति आनंद-दुःख०।।३।। नयन अमी-रस वरसतो रे, लसत सदा सुखकंद-मनडु०। सबल तापन घन-कर्मनो रे, हरतो तेहनो फंद-दुःख०।।४।। त्रिभुवन-भाव प्रकाशतो रे, रमतो परमानंद-मनडुं०। माणेकमुनि कहे भावशुं रे, प्रणमुं ऐह जिणंद-दुःख०।।५।।
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