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श्री प्राचीनस्तवनावली . . . . [३५ जिणंदराय चढ्योरे, समेत गिरिंद ॥ तिहां पाम्यो रे, परमाणंद जि० ॥ प्रभु श्रावण सुदि आठम दिने, श्रीपास शिवपुर गाम। निज कर्म ततखिण चूरिया, जिके दारुण परिणाम ॥ जि०॥३९॥
॥ढाल १३ मी॥ राग परदो॥ तुं अरिहंत अकल, अखल स्वरूपी तुं निराकार। निरंजन ज्योति रूपी ॥ तु० ॥ ४०॥ ए पिंडस्थपद रूपस्थ। रूपातीत ध्यान हैरी । ए मन भंग भविभगवंत॥बहु परि दोर हैरी॥तु०॥४१॥
॥ ढाळ १४ मी ॥ राग सूहव ।
संसार सागर दुःक्ख जल निवड़ति नर बोहित । शुद्ध भाव समकित वासना। शिव सुख करण समत्थ॥ ४२ ॥ जिन प्रतिमा जिन सारिखी वन्दनीक । भगति करो निरभिक जि०॥भगवति ज्ञाता प्रमुख ने। उपदिशी प्रतिमा एह। तो विण जिके माने नहीं, मूढ पशु हुवे तेह ॥जि०॥४३॥