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श्री प्राचीनस्तवनावली . . . . [१७ मोरो मन जेमे, सतिय मने भरतारोरे । जो मुज मन जिनवर वसे॥श्री फरबत कर सणगारोरे ॥६॥ अध्यने भावे करी मन अंगे पूजा कीजोरे । फरवत पुर मंडणसदा, श्रीशान्तिनाथ समरण कीजेरे॥७॥
॥ कलश ॥ एम नेण ससीकला वर्षेमासआसु शुभभणी। श्रीफरवत मंडण दुरित खंडण संथुण्यो त्रिभुवन धणी । श्री रत्न हरखत पुरण वाचक पूरखें सुख संपदा । संसार सागर हुवा सुप्रसिद्ध सोलमा जिनवर सदा ॥ होजी सोलमा जिनवर सदा ॥
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॥ अष्टमीनो स्तवन ॥ पंचतार्थ प्रणमुं सदा, समरी शारद माय। अष्टमी स्तवन हर्षे रचुं सुगुरु चरण पसाय ॥
॥ ढाल ॥ __ हारे लाला जंबुद्वीपना भरतमां, मगधदेश महंतरे लाला-राजगृही नयरी मनोहरू,श्रेणिक बहु