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आदि जिनेश्वररायना, छे पगला मनोहार, भाव सहित भक्ति करे, पहोंचाडे भवपार ॥१॥ रायण रुखतले बिराजी, दीये जगने संदेश, भवियण भावे जुहारीये, दूर करे संकलेश ॥२॥ पगले पडीने विनवू, पूरजो माहरी आश, ज्ञानतणी विनती सुणी, देजो शिवपद वास ॥३॥ धन धन सोरठ देशको, धन धन विमल गिरीद, सिद्धाचल गिरि मंडणो, धनधन ऋषभ जिणंद ॥४॥ सिद्धिदायक यह गिरि, महिमा को नहीं पार, अनन्त मुनि मुगते गया, सकल जीव हितकार ॥५॥ दरशन फरशन जे करे, यह गिरि शिव सुखमाल, क्रोड भवो में जे कीया, पाप छूटे ततकाल ॥६॥ कल्पवृक्ष चिंतामणि, ईण भव में हितकार, गिरिवर सेवन से लहे, भव भव सुख अपार ॥७॥ तीर्थ निमित्त भासन सत्ता, प्रगट सिद्ध स्वरूप, सत् चिदानंद आतमा, निरमलज्ञान अनूप ॥८॥
(61) विमलाचलगिरि भेटतां, मुज मन हर्ष न माय, आदिदेव अलवेसीं, सुंदर मूरती सोहाय ॥१॥ प्रभु पासे पद्मासने, पुंडरीक गणधार, जोतां नयन उलसतां, वर्षे अमृतधार ॥२॥ रायण तरु तले सोहतां, तिम घेटीए जाण, प्रभु पगलां वली वंदता, पामे हर्ष सुजाण ॥३॥ राम पांडव नारद वली, शांब प्रद्युम्न जेह, नमि विनमि द्राविडने, वारिखिल्लजी तेह ॥४॥ इण तीर्थे इम मुनिवरा, आणे कर्मनो अंत, धर्मरत्नपद आपजो, भांगे सादि अनंत॥५।।
(62) सकल सुहंकर सिद्धक्षेत्र, सिद्धाचल सुणीये, सुरनर पति असुर खेचर, निकरे जे थुणिये ॥१॥ सकल तीरथ अवतार सार, बहु गुण भंडार, पुंडरिक गणधर, वर जब पाम्यां भवपार ॥२॥ चैत्री पूनमने दिने ए, कर्म मर्म करी दूर, ते तीरथ आराधीये, दान सुयश भरपुर ॥३॥
(63) सर्वतीर्थ शिरोमणी, शत्रुजय सुखकार, घेटी पगलां पूजतां, सफल