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________________ (14) सिमंधर युगमंधर प्रभु, बाहु सुबाहु चार; जंबुद्विप विदेहमां, विचरे जगदाधार. १ सुजात साहेबने स्वयं प्रभु, ऋषभानन गुण माल; अनंत वीर्य ने सुरप्रभु, दशमा देव विशाल. २ वज्र धर चंद्रानन नमुं, धातकीखंड मोझार; अष्ट कर्म निवारवा, वंदु वार हजार. ३ चंद्रबाहु ने भुजंग प्रभु, नमी इश्चर वीरसेन; महा भद्र ने देवजसा, अजीत वीर्य नामेन. ४ आठे पुष्करार्धमां, अष्टमी गति दातार; विजय अडनव चउविसमी, पण वीसमी कीरतार. ५ जगनायक जगदिश्वरुओ, जगबंधव हितकार; विहरमानने वंदता, जीव लहे भवपार. ६ (15) श्री सिमंधर साहिबा, महाविदेह क्षेत्र मोझार, भक्तिभावे वंदन करूं, दिनमें वार हजार ॥१॥ धन्य धन्य विजय पुष्कलावती, धन्य पुंडरीकीणी धाम, धन्य धन्य माता सत्यकी, धन्य पिता श्रेयांस नाम ॥२॥ चौराशी . लाख पूर्व स्थिति, धनुष पांचशे काय, धोरी लंछन शोभती, सोवन वरणीकाय ॥३॥ कुंथुनाथ वारे जनमीया, इंद्रे कीधो अभिषेक, सुव्रत समय दीक्षा ग्रही, तार्यां जीव अनेक ॥४॥ उदय पेढाल जिनांतरे, थाशो सिद्ध स्वरूप, अधम ऊद्धारण तारजो, देजो ज्ञान अनूप ॥५॥ (16) ज्ञानपंचमी चैत्यवंदनो त्रिगड़े बेठा वीरजिन, भाखे भविजन आगे; त्रिकरण शुं त्रिहुं लोकजन, निसणो मन रागे. १ आराधो भली भांतसे, पांचम अजुवाली; ज्ञान आराधन कारणे, अहीज तिथि निहाळी. २ ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो अणे संसारः ज्ञान-आराधनथी लहे, शिवपद सुख श्रीकार. ३ ज्ञान रहित क्रिया कही, काशकुसुम उपमान; लोकालोक प्रकाश कर, ज्ञान अक प्रधान. ४ ज्ञानी धासोधासमां, करे कर्मनो छेह; पूर्व कोडी वरसा लगे, अज्ञानी करे तेह. ५ देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान; ज्ञान तणो महिमा घणो, अंग पांचमे भगवान. ६ पंचमास लघु पंचमी, जावज्जीव उत्कृष्टी, पंच वरस पंच मासनी, पंचमी करो शुभ दृष्टि. ७ अकावन ही पंचनो ओ, काउसग्ग लोगस्स
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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