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(ढा. १) (राग : मने संसार शेरी विसरे रे लोल) जंबूद्विपना भरतमां जो, रुडं माहणकुंड छे गाम जो; रुषभदत्त माहण सिंहा वसे जो, तस नारी देवानंदा नामजो. चरित्र सुणो जिनजी तणा जो. ॥१॥ जेम समकित निर्मल थाय जों, अष्ट महासिद्धि संपजे जो; वली पातिक दूर पलाय जो. च० ॥२॥ उजळी छठ्ठ अषाढनी जो, योगे उत्तराफाल्गुनी सारजो; पुष्पोत्तर सुविमानथी जो, चवी कुखे लीओ. अर्घतार जो. च० ॥३॥ देवानंदा तिण रयणीओ जो, सुता सुपन लह्या दशचार जो; फळ पूछे निज कंतने जो, कहे ऋषभदत्त मन धार जो. च० ॥४॥ भोग अरथ सुख पामशो जो, तमे लहेशो पुत्र रतन जो; देवानंदा ते सांभळी जो, कीधु मनमां तहत्ति वचन जो. च० ॥५॥ संसारीक सुख भोगवे जो, सुणो अचरिज हुओ तेणीवार जो; सुधर्म इन्द्र तिहां कने जो, जोई अवधि तणे अनुसार जो. च० ॥६।। चरम जिनेश्वर उपन्या जो, देखी परख्यो इन्द्र महाराज जो; सात आठ पग सामो जई जो, ओम वंदन करे शुभ साज जो. च० ॥७।। शक्रस्तव विधि| करे जो, फरी बेठो सिंहासन जाम जो; मन विमासणमां पड्युं जो; चित्त चिंतवे सुरपति ताम जो. च० ॥८॥ जिन चक्रि हरि रामजी जो, अंत प्रांत माहणकुले जोय जो; आव्या नही नही आवशे जो, ओतो उग्रभोग राजकुल होय जो. च० ॥६॥ अंतिम जिनेश्वर आवीया जो, ओतो माहणकुलमां जोय जो; अतो अच्छेरा भूत थयुं जो, थयुं हुंडासर्पिणी तेण जो. च० ॥१०।। काळ अनंत जाते थके जो, ओहवा दश अच्छेरा थाय जो; इण अवसर्पिणीमां थया जो, ते कहीये चित्त लाय जो. च० ॥११॥ गर्भ हरण उपसर्गनो जो, मुल रुपे आव्या रविचंद जो; निष्फळ देशना जे गइ जो, गयो सौधर्मे चमरेन्द्र जो. च० ॥१२॥ ओ श्री वीरनी वारमा जो, कृष्ण अमरकंका गया जाण जो; नेमिनाथ ने वारे सही जो, स्त्री तीर्थ मल्लि गुण खाण जो. च० ॥१३॥ अकसो ने आठ सिद्ध ऋषभने जो, वारे सुविधिने असंयति जो; शीतल नाथ वारे थयुं जो, कुळ हरि वंशनी उत्पत्ति जो. च० ॥१४॥ओम विचार करे इंद्रलो जो, प्रभु नीच कुले अवतार जो; तेहD कारण शुं अछे जो, इम चिंतवे हृदय मोझार जो. च० ॥१५॥
(ना. २) (राग : आसो मासे शरद पुनमनी रात जो) भव म्होटा कहीजे