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जिनजी० ॥३॥ नरक तणी वेदना अति उलसी; सही ते जीवे बहु; परमाधामीने वश पडीयो, ते जाणो तमे सहु. हो जिनजी० ॥४॥ तिर्यंच तणा भव कीधा घणेरां, विवेक नहींय लगार; निश दिननो व्यवहार न जाण्यो, केम उतराये पार०....हो जिनजी० ॥५॥ देवतणी गति पुण्ये हुं पाम्यो, विषयारसमां लीनो; व्रत पच्चकखाण उदय नवि आव्या; तान मान मांहे तीनो०....हो जिनजी० ॥६॥ मनुष्य जन्म ने धर्म सामग्री, पाम्यो छु बहु पुण्ये, रागद्वेष मांहे बहु मलीयो, न टाली ममता बुद्धि०....हो जिनजी० ॥७|| एक कंचन ने बीजी कामिनी, तेहशुं मनईं बांध्यु, तेहना भोग लेवाने हुं शुरो; केम करी जिन धर्म साधु०....हो जिनजी० ॥८॥ मननी दोड कीधी अति झाजी, हुं छु कोक जड जेवो, कलिकलि कल्पमें जन्म गुमायो, पुनरपि पुनरपि तेहवो०....हो जिनजी० ॥६॥ गुरु उपदेशमां हुं नथी भीनो, न आवी सद्हणा स्वामी, हवे वडाई जोईए तमारी, खिजमत मांहे छे खामी०....हो जिनजी० ॥१०॥ चार गति मांहे रडवडीयो, तोए न सिध्यां काज! ऋषभ कहे तारो सेवकने, बाह्य ग्रह्यानी लाज०....हो जिनजी० ॥११॥
(2) श्री महावीर जिन स्तवन तेरो दरस मन भायो, चरम जिन. तेरो दरस मन भायो; तुं प्रभु करुणारसमय स्वामी, गर्भमें सोग मीटायो; त्रिशला माताको आनंद दिनो, ज्ञातनंदन जग गायो०....चरम० ॥१॥ वरसी दान दे रोरता वारी, संयम राज्य उपायो; दीन हीनता कबहु न तेरे, सच्चिद आनंद रायो०....चरम० ॥२॥ करुणा मंथर नयने निहाली, चंडकौशिक सुख दायो; आनंद रस भर सरगे पहुंतो, ऐसा को न करायो०....चरम० ॥३॥ रत्न कंबल द्विजवरको दिनो, गोशालक उधरायो; जमाली पन्नर भव अंते, महानंद पद ठायो०....चरम० ॥४॥ मत्सरी गौतमको गणधारी, शासन नायक ठायो, तेरे अवदात गिनुं जग के ते, तुं करुणा सिंधु कहायो;०....चरम० ।।५।। हुं बालक शरणागत तेरो कयुं मुजको विसरायो, तेरे विरहसे हुं दुःख पामुं, कर मुज आतम रायो०....चरम० ॥६॥
(3) श्री महावीर जिन स्तवन त्रिशलादे गोद खिलावे छे, त्रिशलादे. वीर जिणंद जगत कृपाला, तेरा