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(37) श्री अंतरीक्ष पार्श्वनाथ जिन स्तवन श्री अंतरीक्ष महाराज, गरीब निवाज, सुणो जिनवरजी, सेवक शिर नामे तने, गुजारे छे अरजी, वीशमां तिर्थंकर मुनिसुव्रतनां वारे, लंकापति रावण राज्य करे छे त्यारे, तसभवन पतिश्वर राजाए व्रत लीधो, जिनभक्ति विना नवि खावू सवि प्रसिद्धो ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥१।। एकदिन जंगलमां नृपजई चढ्यो जोवारे, सेवाने अवसरे जिन प्रतिमा संभाले, तव विसरी प्रतिमा सेवक मुखथी जाणी, मंत्रीश्वर आवी विनवे गुण निशानी ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥२॥ तिहां छाण-वेलुनी प्रतिमा करी प्रभु पूजे, नदी खाडो घाली युक्ति शुं मांही मूके, पछी देव अधिष्ठ प्रतिमा ते तिहां थावे, नदी सुकतां पण पाणी अधिक तिहां आवे, ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥३॥ हवे एलचपुरजो राजा एलच नामे, कोइ कारण योगी आवी गयो ते ठाणे, ते राजा कृष्टि रोगे अति पीडाणो, तिहां पाणी लेवा आव्यो मंत्री शाणो ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥४॥ ते पाणी लईने पीधुं राय ते वारे, तव रोग गयोने शांति थइ तेवारे, पछी राणी वचने राजा प्रतिमा लावे, काचा तंतुथी आकट गाडी जोडावे ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥५॥ एक दीवसना जन्मेला वत्स बे लावे, काचा तंतुथी गाडी साथे जोडावे, संवत पांचसे पंचावन प्रभु आव्यां, पछी देश वराडे शिवपुर नगर सोहाव्यां ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥६॥ जिहां लइ जावो तिहां पार्छ वालीने जोशो, नही तो ते प्रतिमा अधर आकाशे रहेशे, इम सुपन मांहेली छेली वात विचारी, पार्छ वाली नप जोवे ह्रदयमां विचारी ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥७।। चाल्युं प्रभु अंतरीक्षमांही रहीयां, छमास सुधी इम आकाशे गह गहीया, घोडे अशवार पण नीचे थईने जातो, तेथी अंतरीक्ष ए नाम जगत विख्यांत ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥८॥ अब पंचम कालमां अंगलुंछणो निकले, ते पडिमा देखी भवियणना मन उछले, अब देश वराडे शिवपुर नगर मोझार, प्रभु प्रतिमा देखी, वो जयजयकार ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥६॥ संवत ओगणीशे चोशठ साल वखाणो, चैत्रसुदि अष्टमी गुरुवारनो टाणो, प्रभु पार्थनाथनी यात्रा कीधी भारी, कहे कमलविजय मुज होजो भव निस्तारी ॥ श्री अंतरीक्ष० ॥१०॥