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खेतमें रे, २०॥४॥ पर कर्तृत्व स्वभाव करे त्यां लगी करे रे, क० शुद्धकार्य रुचि भास थये नवि आदरे रे; थ० शुद्धातम निज कार्य रुचि कारक फिरे रे, रु० तेहिज मूळ स्वभाव ग्रह्यो निज पद वरे रे, ग्र०॥५॥ कारण कारज रुप अछे कारकदशा रे, अ० वस्तु प्रगट पर्याय एह मनमें वस्या रे, ए० पण शुद्ध सरुप ध्यान चेतनता ग्रहे हे, चे० तब निज साधक भाव सकळ कारक लहेरे, स०॥६॥ माहरु पूर्णानंद स्वरूप प्रगट करवा भणीरे, प्र० पुष्टालंबन रुप सेव प्रभुजी तणीरे, स० देवचंद्र जिनचंद्र भक्ति मनमें धरो रे, भ० अव्याबाध अनंत अक्षयपद आदरोरे, अ०॥७॥
(9) श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन (रूप अनूप निहाळी)
सुगुरु सुणी उपदेश, ध्यायो दिलमें धरी, कीधी भगती अनंत, चवी चवी चातुरी।, सेव्यो रे वीसवा वीश, उलट धरी उलस्यो। दीठो नवि दीदार, कां न कीणही लस्यो ।9। परमेसरशुं प्रीत, कहो कीम कीजीये । निमेष न मेले मीट, दोष किण दीजीये। कोण करे तकसीर, सेवामां साहिबा। कीजे न छोकरवाद, भगत भरमाववा । २। जाण्युं तमारूं जाण, पुरुष न पारिखो । सुगुण निगुणनो राह, कर्यो | सारिखो। दीधो दिलासो दीन, दयाल कहावशो। करूणा रसभंडार, बिरूद किम पालशो । ३। शुं निवस्या तुमे सिद्धि, सेवकने अवगणी। दाखो अविहड प्रीत, जावा द्यो भोलामणी। जो कोई राखे राग, निराग न राखीये। गुण अवगुणनी वात, कही प्रभु भाखीये । ४ । अमचा दोष हजार, तिके मत भालजो। तुमे छो चतुर सुजाण, प्रीतम गुण पाळजो। मल्लिनाथ महाराज, म राखो आंतरो। द्यो दरिशन दीलधार, मिटे ज्युं खांतरो । ५। मनमंदिर महाराज, विराजो दिल मली। चंद्रातप जिम कमल, हृदय विकसे कली। कवि रूप विबुध सुपसाय, करो अम रंगरली। कहे मोहन कविराय, सकल आशा फली।६। (10) श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन (दुःख दोहग दूरे टळ्यां रे)
मल्लिनाथ मुज विनतीजी, अवधारो अरिहंत । दंभ विना हुं दाखवूजी, अचरिज एह अत्यंत गुणवंता साहिब दर्शन ज्ञान निधान । ते आपीने कीजीयेजी, सेवक आप समान । गुणवंता । १। वीतरागता दाखवोजी, रंजो