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घट कारण सद्भावी॥७॥ एह अपेक्षा हेतु, आगममांहि कयोरी; कारणपद उत्पन्न, कार्य थये न लह्योरी ॥ ८ ॥ कर्त्ता आतम द्रव्य, कार्य सिद्धिपणोरी; निज सत्तागत धर्म, ते उपादान गणोरी || ६ || योग समाधि विधान, असाधारण तेह वदेरी; विधि आचरणा भक्ति, जिणे निज कार्य सधेरी ॥ १० ॥ नरगति पढम संघयण, तेह अपेक्षा जाणो; निमित्ताश्रित उपादान, तेहनी लेखे आणो || ११|| निमित्त हेतु जिनराज, समता अमृत खाणी; प्रभु आलंबन सिद्धि, नियमा एह वखाणी ॥१२॥ पुष्ट हेतु अरनाथ, तेहना गुणथी हलीये; रीझ भक्ति बहुमान, भोग ध्यानथी मलीये ॥ १३ ॥ मोटाने उछंग, बेठाने शी चिंता; तिम प्रभु चरण पसाय, सेवक थया निचिंता ||१४|| अर प्रभु प्रभुता रंग, अंतर शक्ति विकासी; देवचंद्रने आनंद अक्षयभोग विलासी ॥१५॥
(1) श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन
मल्लिनाथ प्रभुशुं होके, साकर दुध परे; मुज मन अति मलीयो होके, पूरव प्रेम भरे०. |9|| प्यारा मांही प्यारो होके, तेजमां तेज भले; भूते भूत भेला होके, जगमां जेम मले० ॥ २॥ तन्मय ते रीते होके, अंतर ती अलगो; पुरण प्रभु साथे हो के, मन मारो वलगो० . ||३|| फुले जेम परिमल होके, तलमां तेल जिस्यो; मुज मनडां मांहे हो के, तुं प्रभु तेम वस्यो ०. ॥४॥ कोडी गमे कोई होके, तरजे जो त्रटकी; बे दिल नवि थाउं हो के, तो पण तुम थकी ० . ||५|| तुं मुज स्वामी होके, छे अंतर जामी; मुज खमजे खामी हो के, कहुं हुं शीरनामी ०. || ६ || उदय रतननी हो के, अहवी अरज सुणी; प्रभु मिलीया पोते हो के, मनमा महेर घणी०. ||७|| समताथी दर्द सहु ) हवे जाणी मल्लि जिणंद में माया तमारी रे, तुमे कहेवाओ निरागी, जुओ विचारी रे. ॥१॥ प्रभु तेहशुं ताहरी वात, जे रहे तुजवलगारे; ते मुळन पामे घात, जे होवे अलगारे. ॥२॥ तुमे वारो चोरी नाम, जगत चित्त चोरो रे, तुमे तारो जगनां लोक, कराव्यों न्होरो रे ||३|| तुमे कहेवाओ निर्ग्रथ, तो त्रिभुवन केरी रे; प्रभु केम धरो ठकुरात, कहेशो शुं फेरी रे,
(2) श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन ( राग